तौहीद पर ईमान, दीन और तक़दीर
1. “ अल्लाह तआला की महान क़ुदरत और विशाल बादशाहत ”
2. “ अल्लाह तआला के कभी ख़तम न होने वाले ख़ज़ाने ”
3. “ कायनात के सारे काम अल्लाह तआला की मर्ज़ी से होते हैं ”
4. “ अल्लाह तआला की रहमत और क्रोध के बारे में ”
5. “ अल्लाह तआला की ज़ात की बजाए उसकी नअमतों पर ग़ौर करना चाहिए ”
6. “ अल्लाह तआला के ईश्वर होने और रसूल अल्लाह ﷺ के रसूल होने की गवाही देने की फ़ज़ीलत ”
7. “ पांच मामलों के बारे में केवल अल्लाह ही जनता है ”
8. “ तौहीद : अल्लाह एक और अकेला है यह विश्वास करने के नियम ”
9. “ तौहीद : अल्लाह एक और अकेला है यह विश्वास करने की बरकतें ”
10. “ सारे कर्मों का आधार तौहीद है यानि अल्लाह को एक और अकेला मानना है ”
11. “ अल्लाह तआला को याद करने का कारण ”
12. अल्लाह तआला को याद करने का फल
13. अल्लाह तआला को किस ने पैदा किया ، इसका जवाब
14. «لا إله إلا الله» ज़्याद कहने की नसीहत और इसका कारण
15. अल्लाह तआला को एक और अकेला ईश्वर मानने और रसूल अल्लाह ﷺ को अल्लाह का रसूल मानने का हुक्म
16. मरने वाले को कलिमह शहादत पढ़ने की नसिहत करना
17. शिर्क क्या है ، इसके प्रकार और इसका बोझ
18. क्या तोबा किये बिना मर जाने वाले मुसलमानो को क्षमा कर दिया जाएगा ?
19. इस्लाम स्वीलकार करने के बाद पलट जाना पाप है और क्या इस की तोबा मुमकिन है
20. सवाब कैसे पहुंचाया जा सकता है
21. “ काफ़िरों को मरने के बाद उनके नेक कर्म कोई लाभ नहीं पहुंचाते ”
22. “ इस्लाम लाने के बाद जाहिलियत के समय में की गई नेकियों की एहमियत ”
23. “ अगर कोई मुसलमान हज्ज करने के बाद इस्लाम छोड़ दे और फिर से मुसलमान हो जाए तो क्या उसका किया हुआ हज्ज काफ़ी होगा ”
24. “ इस्लाम लाने के बाद पिछले पापों की पूछताछ कब की जाएगी ”
25. “ ईमान लाने वाले अहले किताब और मुशरिकों के बदले और सवाब में अंतर ”
26. “ वह लोग जन्हें अल्लाह तआला पसंद नहीं करता है ”
27. “ अल्लाह तआला के सिवा किसी और की क़सम खाना मना है ”
28. “ बड़े पापों से बचने की नसिहत ”
29. “ परीक्षाएँ इस उम्मत की तक़दीर हैं ”
30. “ सबसे अच्छा दीन ”
31. “ रसूल अल्लाह ﷺ की उम्मत के लिए तय की गई शरीअत आसान है ”
32. “ बीच रस्ते पर चलते रहने की नसिहत और तरीक़ा ”
33. “ दीन मैं हद से आगे जाना मना है ”
34. “ तक़दीर के बारे में ”
35. “ तक़दीर सच है, लेकिन इन्सान का विकल्प ”
36. “ तक़दीर के बारे में बात करने वाले अच्छे लोग नहीं ”
37. “ पैदा किये जाते समय ईमान या कुफ़्र का फ़ैसला ”
38. “ प्रचारकों के गुण ”
39. “ नेकी का बदला दस से सात सो गुना अधिक ”
40. “ आदमी अपने मरने की जगह कैसे पहुंचता है ? ”
41. “ वही उतरते समय आसमान वालों के बारे में ”
42. “ शैतान वही यानि आसमान की बातें कैसे जान लेते हैं ”
43. “ ईमान के लक्षण ”
44. “ बुराइयों के कारण ईमान में कमी आजाती है ”
45. “ बुरे इन्सान का ईमान कैसे चला जाता है ”
46. “ नेकी और बुराई का कैसे पता चलता है ”
47. “ पाप किसे कहते हैं ”
48. “ मोमिन पर लाअनत करने की निंदा ”
49. “ किसी को काफ़िर कहने से बचना ”
50. “ मुसलमानों में बाक़ी रह जाने वाली जाहिलियत की विशेषताएं ”
51. “ ग्रहों और सितारों में विश्वास ( ज्योतिष विद्या ) के बारे में ”
52. “ क़यामत के दिन बहरे, पागल और बहुत बूढ़े इन्सान की दोबारा परीक्षा ”
53. “ हर नेक कर्म किया जाए चाहे वह पसंद न हो ”
54. “ इबादत के समय इबादत करने वाले के बारे में ”
55. “ दुनिया में मोमिन एक परदेसी यानी यात्री है ”
56. “ जीवन में मोमिन अपने आप को क्या समझे ”
57. “ अल्लाह तआला के अज़ाब से बचाओ और जन्नत में जाने के कारण ”
58. “ मोमिन के दिखाई देने वाले लक्षण ”
59. “ हर समय और हर जगह अल्लाह तआला को याद करना ”
60. “ हर बुराई के बाद नेकी करने की नसीहत ”
61. “ सब्र और दान पूण भी ईमान में आते हैं ”
62. “ शर्म और हया भी ईमान है ”
63. “ अल्लाह के लिए दोस्ती और दुश्मनी रखना ईमान की मज़बूत कड़ी है ”
64. “ ईमान और जिहाद सबसे अफ़ज़ल कर्मों में से हैं ”
65. “ इस्लाम ، जिहाद और हिजरत के प्रकार ”
66. “ अफ़ज़ल हिजरत ”
67. “ सफलता का रहस्य ”
68. “ तौरात में रसूल अल्लाह ﷺ के बारे में ”
69. “ चार मना कर दिए गए मामले ”
70. “ इस्लाम में समझदारी के बारे में ”
71. “ किसी की इबादत करने का अर्थ « اتَّخَذُوا أَحْبَارَهُمْ وَرُهْبَانَهُمْ أَرْبَابًا مِّن دُونِ اللَّـهِ » [ सूरत अत-तौबा:31] की तफ़्सीर ] ”
72. “ कब तक लोगों से जंग की जाए ”
73. “ इस्लाम के विभिन्न नियम ”
74. “ इस्लाम स्वीकार करने के बाद मुसलमानों के लिए हानिकारक ”
75. “ मर चुके मोमिनों की आत्माओं की जगह ”
76. “ मुसलमानों की शरू की और बाद की हालत ”
77. “ विदा करने की दुआ ”
78. “ अल्लाह के क़रीब आने के कारण अल्लाह के दोस्तों की निशानियां और उन से दुश्मनी करने वालों का बुरा अंत अल्लाह तआला की अच्छाई “تردد ” के बारे में ”
79. “ अल्लाह तआला से कल्पना करने के बारे में ”
80. “ सूरत अल-माइदा (44) « وَمَن لَّمْ يَحْكُم بِمَا أَنزَلَ اللَّـهُ فَأُولَـٰئِكَ هُمُ الْكَافِرُونَ » (47) « وَمَن لَّمْ يَحْكُم بِمَا أَنزَلَ اللَّـهُ فَأُولَـٰئِكَ هُمُ الظَّالِمُونَ » (45) « وَمَن لَّمْ يَحْكُم بِمَا أَنزَلَ اللَّـهُ فَأُولَـٰئِكَ هُمُ الْفَاسِقُونَ » की तफ़्सीर ”
81. “ क्या बुरा आदमी दीन का माध्यम बन सकता है ”
82. “ क़त्ल करने वाला और क़त्ल होने वाला दोनों जन्नत में ”
83. “ हर सो साल के बाद दिन का फिर से ताज़ा होना ”
84. “ हर कारीगर को और उस के हुनर यानि काम को अल्लाह तआला पैदा करता है ”
85. “ अल्लाह के लिए नियत करना कर्म स्वीकार होने का आधार बनती है ”
86. “ दिखावा छोटा शिर्क है ”
87. “ दिखावा करने वाला ، शहीद ، दानी ، क़ारी और ज्ञानी का अंत ”
88. “ लोकप्रियता कि इच्छा करना बोझ है ”
89. “ अल्लाह तआला से ईमान को ताज़ा करने कि दुआ करना ”
90. “ मुसलमान किसी बंदे के बुरा या नेक होने के गवाह हैं ”
91. “ ईमानदारी से किये गए नेक कर्मों को वसीला बनाना ... गुफा वालों का क़िस्सा ”
92. “ मदीना और मक्का दज्जाल से सुरक्षित हैं ”
93. “ अज़ल ! यानि परिवार नियोजन का परिचय और हुक्म ”
94. “ क्या तअवीज़ लटकाना यानि तअवीज़ गंडा शिर्क है ”
95. “ रसूल अल्लाह ﷺ का फ़रमान सहाबा के लिए काफ़ी होना ”
96. “ अरब कि ज़मीन से शैतान का निराश हो जाना ”
97. “ मक्का पर विजय के दिन इब्लीस कि हालत ”
98. “ शैतान की चालबाज़ी और शैतान की बात ना मानने पर जन्नत कि ख़ुशख़बरी ”
99. “ नज़र लग जाना सच है ”
100. “ बनि सक़ीफ़ का झूठा और घातक ”
101. “ आदम कि औलाद के दिलों का अल्लाह तआला के क़ाबू में होना ”
102. “ उम्मत का रसूल अल्लाह ﷺ के दर्शन की इच्छा करना ”
103. “ इस्लाम की निशानियां ”
104. “ हमारे लिए किसी का ईमान और कुफ़्र जानने के लिए उसका कहना काफ़ी है ”
105. “ हर दुश्मन से बचाने वाला अल्लाह तआला है ، रसूल अल्ल्हा ﷺ का निजी बदला न लेना ”
106. “ अल्लाह तआला और रसूल अल्लाह ﷺ से सुरक्षित होने की शर्तें ، ग़ैर मुस्लिम देश में रहना केसा है ، हिजरत का हुक्म बाक़ी है ”
107. “ मुशरिकों के साथ रहने की नहूसत ”
108. “ जहन्नम से दूर होने और जन्नत के क़रीब आने का तरीक़ा ”
109. “ रिज़्क़ कैसे माँगा जाए ”
110. “ जिहाद क़यामत तक रहेगा ”
111. “ इस्लाम में सन्यास नहीं है ، जिहाद की फ़ज़ीलत ”
112. “ रसूल अल्लाह ﷺ और आप की उम्मत की मिसाल ”
113. “ इस्लाम के बाद फिर से फ़ितनों का उभरना ”
114. “ « يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا عَلَيْكُمْ أَنفُسَكُمْ ۖ لَا يَضُرُّكُم مَّن ضَلَّ إِذَا اهْتَدَيْتُمْ » ( सूरत अल-माइदा:105 ) की तफ़्सीर ”
115. “ ईमान के भाग ”
116. “ यमनी लोगों के ईमान की फ़ज़ीलत ”
117. “ ईमान वालों की ताअरीफ़ और पूरब के लोगों की निंदा ”
118. “ रसूल अल्लाह ﷺ का जिन्नों को क़ुरआन पढ़ कर सुनना ”
119. “ हिरक़ल को इस्लाम की दावत के पत्र ، इस्लाम स्वीकार करने के मामले में रसूल अल्लाह ﷺ और सहाबा की विशेषताएं ”
120. “ ईमान की मिठास किस को नसीब होती है ”
121. “ किन लोगों की इबादत स्वीकार नहीं की जाती ? ”
122. “ दोहरा सवाब पाने वाले तीन तरह के लोग ”
123. “ मौत का फरिश्ता पहले कैसे आता था और मूसा अलैहिस्सलाम का मौत के फ़रिश्ते को थप्पड़ मरना ”
124. “ जन्नत और जहन्नम दोनों हर इन्सान के क़रीब हैं ”
125. “ हलाल और हराम तो साफ़ है लेकिन शक वाली चीज़ों के बारे मैं ”
126. “ मालदार लोगों के पास नेकियां कम होती हैं ”
127. “ नमाज़ ، हज्ज और रमज़ान के रोज़ों की फ़ज़ीलत ”
128. “ हवा पानी अगर अच्छा न हो तो दूसरी जगह जाया जा सकता है ”
129. “ अच्छा सपना ”
130. “ बुरा सपना ”
131. “ « الَّذِينَ آمَنُوا وَكَانُوا يَتَّقُونَ لَهُمُ الْبُشْرَىٰ فِي الْحَيَاةِ الدُّنْيَا وَفِي الْآخِرَةِ » की तफ़्सीर ”
132. “ ऊँचा दर्जा और पापों का कफ़्फ़ारह बनने वाले कर्म और रसूल अल्लाह ﷺ का अल्लाह तआला को देखना ”
133. “ दोस्त आप की पहचान होता है ”
134. “ बच्चों का अंतिम मामला ”
135. “ तीन प्रकार के बड़े पाप ”
136. “ बंदे की निराशा पर अल्लाह तआला का हंसना ”
137. “ नजाशी मुसलमान था ”
138. “ अल्लाह तआला का बंदे से क़र्ज़ मांगना ”
139. “ अल्लाह तआला के हाँ बंदे के कर्मों का बढ़ जाना ”
140. “ रसूल अल्लाह ﷺ को देखे बिना उन पर ईमान लाने वलों की फ़ज़ीलत ”
141. “ अच्छा शगुन लेना ”
142. “ बुरा शगुन लेना मना है ”
143. “ छूतछात का रोग ، बुरी फ़ाल ، नहूसत और नज़र लगने के बारे में ”
144. “ ज्योतिष विद्या ”
145. “ जादू करना मना है ”
146. “ क्षमा किये जाने और न किये जाने वाले ज़ुल्म ”
147. “ क्या कोई चीज़ मनहूस हो सकती है ”
148. “ नबवत की मुहर ”
149. “ बेसबरी और आत्महत्त्या के बारे में ”
150. “ वंश बदलना कुफ़्र है ”
151. “ शिर्क और क़त्ल क्षमा नहीं किया जाएगा ”
152. “ क़यामत के दिन रसूल अल्लाह ﷺ के नसबी और वैवाहिक रिश्ते बने रहेंगे ”
153. “ अच्छे और बुरे लोगों के रस्ते और ठिकाने अलग अलग हैं ”
154. “ रसूल अल्लाह ﷺ किन मामलों को साथ लाए हैं ”
155. “ असरा (रात का सफ़र ) और मअराज के अवसर पर काफ़िरों का रसूल अल्लाह ﷺ का मज़ाक़ बनाना और निंदा करना ”
156. “ रसूल अल्लाह ﷺ पर ईमान न लेन वाले यहूदी और इसाई का अंजाम ”
157. “ अगर दस यहूदी रसूल अल्लाह ﷺ पर ईमान ले आए तो ”
158. “ रसूल अल्लाह ﷺ के सहाबी की करामत और रिज़्क़ दें वाला अल्लाह है ”
159. “ तकलिफ़ होने पर बिस्मिल्लाह «بسم الله» कहने की फ़ज़ीलत ”
160. “ रसूल अल्लाह ﷺ की बरकतों का होना ”
161. “ अल्लाह तआला को ताअरीफ़ भी पसंद है और कारण भी ”
162. “ अल्लाह तआला का सब्र ”
163. “ ईमान में उतार चढ़ाओ मुनाफ़िक़त नहीं है ”
164. “ अपनी बढ़ाई और दुसरे को छोटा दिखाने के लिए पारिवारिक नाम का उपयोग करना मना है ”
165. “ मोमिन की मिसाल मधुमक्खी और खजूर के पेड़ की तरह है ”
166. “ हर इन्सान को समय पर सहमत होना चाहिए और नेक कर्म करना चाहिए ، कौन सा भेदभाव निंदनीय है ”
167. “ पद संभालने वाले सतर्क रहैं अल्लाह तआला के नाम पर सवाल करने वाला या जिस से सवाल किया जाए दोनों लाअनती कैसे ”
168. “ नेकी की तरफ़ बुलाने वाले का सवाब और बुराई की तरफ़ बुलाने वाले का बोझ ”
169. “ किसी को मुसीबत में देखने की दुआ और उसका लाभ ”
170. “ किसी से अल्लाह तआला के लिए मुहब्बत करने का बदला ”
171. “ किस मुसलमान को अल्लाह तआला और रसूल अल्लाह ﷺ की ज़मानत दी गई है ”
172. “ अल्लाह तआला किस मुसलमान को क्षमा करता है ”
173. “ दुआ न करना अल्लाह तआला के ग़ुस्से का कारण है ”
174. “ एक मोमिन दुसरे मोमिन का दर्पण है ”
175. “ ईमान वालों की आपस की मुहब्बत के बारे में ”
176. “ आपसी भाईचारा ، मुसलमान की बुराई छुपाना और तकलीफ़ दूर करने का सवाब ”
177. “ अगली नस्लों तक हदीसें पहुंचाने वाले और मुहद्दिसों की फ़ज़ीलत ، दुनिया की चिंता का अंजाम और आख़िरत की चिंता का नतीजा ”
178. “ लोग चार प्रकार और कर्म छे प्रकार के हैं ”
179. “ रसूल अल्लाहु ﷺ के हुक्म पर खजूर के गुच्छे का उन की तरफ़ आना ”
180. “ एक से बढ़ कर एक अफ़ज़ल ( अच्छे ) कर्म ”
181. “ ज़माने को गाली देना मना है ”
182. “ मोमिन की फ़ज़ीलत ”
183. “ मोमिन का दूसरों के लिए भलाई पसंद करना ”
184. “ ईमान ، सच्चाई ، अमानत वाले दिल का कुफ़्र ، झूठ और ख़यानत से पाक होना ”
185. “ मोत के समय पापों से डरने के बारे में ”
186. “ अहंकार का अर्थ और निंदा ”
187. “ क़यामत से पहले बारह क़ुरेशी ख़लीफ़ाओं की ख़िलाफ़त का होना ”
188. “ हर ज़माने में एक जत्था सच्चे दीन पर बना रहेगा ”
189. “ मोमिन नसीहत लेता है ”
190. “ कुछ मोमिनों का रसूल अल्लाह ﷺ के पास आराम पाना और उनकी विशेषताएं ”
191. “ इब्लीस यानि शैतान को पैदा करने का कारण ”
192. “ बढ़ाई की परख रंग नसल और तक़वा है ”
193. “ « وَأَنذِرْعَشِيرَتَكَ الْأَقْرَبِينَ » की तफ़्सीर ”
194. “ ज़्यादा से ज़्यादा कितने रोज़े रखे जा सकते हैं ، रसूल अल्लाह ﷺ मुसलमानो के लिए उन से ज़्यादा अच्छा चाहते हैं ”
195. “ क़यामत के दीन ग़रीब कौन होगा? अल्लाह तआला के बंदो पर ज़ुल्म करने वालों की आख़िरत के बारे में ”
196. “ आधे शअबान के महीने की फ़ज़ीलत ”
197. “ एहले तौहीद भी बुरे कर्मों के कारण जहन्नम में जा सकते हैं ”
198. “ कुछ कारणों से कुछ हदीसों को न सुनाना ”
199. “ रसूल अल्लाह ﷺ का चमत्कार और खाने में बरकत ”
200. “ रसूल अल्लाह ﷺ का चमत्कार और खाने में बरकत ”
201. “ रसूल अल्लाह ﷺ की हदीसों पर संतोष करना चाहिए ”
202. “ नेक कर्म रसूल अल्लाह ﷺ की अनुमति के अनुसार कम या ज़्यादा हों ”
203. “ रसूल अल्लाह ﷺ की आज्ञा का पालन न करना जन्नत से इन्कार के बराबर ”

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سلسله احاديث صحيحه
सिलसिला अहादीस सहीहा
الايمان والتوحيد والدين والقدر
ایمان توحید، دین اور تقدیر کا بیان
तौहीद पर ईमान, दीन और तक़दीर
«ومن لم يحكم بما أنزل الله فأولئك هم الكافرون» (سورہ مائدہ: ۴۴) «ومن لم يحكم بما أنزل الله فأولئك هم الظالمون» (سورہ مائدہ: ۴۵) «ومن لم يحكم بما أنزل الله فأولئك هم الفاسقون» (سورہ مائدہ: ۴۷) کی تفسیر
“ सूरत अल-माइदा (44) « وَمَن لَّمْ يَحْكُم بِمَا أَنزَلَ اللَّـهُ فَأُولَـٰئِكَ هُمُ الْكَافِرُونَ » (47) « وَمَن لَّمْ يَحْكُم بِمَا أَنزَلَ اللَّـهُ فَأُولَـٰئِكَ هُمُ الظَّالِمُونَ » (45) « وَمَن لَّمْ يَحْكُم بِمَا أَنزَلَ اللَّـهُ فَأُولَـٰئِكَ هُمُ الْفَاسِقُونَ » की तफ़्सीर ”
حدیث نمبر: 140
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-" إن الله عز وجل انزل: * (ومن لم يحكم بما انزل الله فاولئك هم الكافرون) * و* (اولئك هم الظالمون) * و * (اولئك هم الفاسقون) *. قال ابن عباس: انزلها الله في الطائفتين من اليهود، وكانت إحداهما قد قهرت الاخرى في الجاهلية حتى ارتضوا واصطلحوا على ان كل قتيل قتله (العزيزة) من (الذليلة) فديته خمسون وسقا، وكل قتيل قتله (الذليلة) من (العزيزة) فديته مائة وسق، فكانوا على ذلك، حتى قدم النبي صلى الله عليه وسلم المدينة، فذلت الطائفتان كلتاهما لمقدم رسول الله صلى الله عليه وسلم، ويؤمئذ لم يظهر ولم يوطئهما عليه (¬1) وهو في الصلح، فقتلت الذليلة من العزيزة قتيلا، فارسلت (العزيزة) إلى (الذليلة) ان ابعثوا إلينا بمائة وسق، فقالت (الذليلة): وهل كان هذا في حيين قط دينهما واحد، ونسبهما واحد، وبلدهما واحد، دية بعضهم نصف دية بعض؟! إنا إنما اعطيناكم هذا ضيما ¬ (¬1) لفظ الطبراني:" ورسول الله صلى الله عليه وسلم يؤمئذ لم يظهر عليهم ولم يوطئهما، وهو الصلح". اهـ. منكم لنا، وفرقا منكم، فاما إذ قدم محمد فلا نعطيكم ذلك، فكادت الحرب تهيج بينهما، ثم ارتضوا على ان يجعلوا رسول الله صلى الله عليه وسلم بينهما، ثم ذكرت (العزيزة) فقالت: والله ما محمد بمعطيكم منهم ضعف ما يعطيهم منكم، ولقد صدقوا، ما اعطونا هذا إلا ضيما منا وقهرا لهم، فدسوا إلى محمد من يخبر لكم رايه، إن اعطاكم ما تريدون حكمتموه وإن لم يعطكم حذرتم فلم تحكموه. فدسوا إلى رسول الله صلى الله عليه وسلم ناسا من المنافقين ليخبروا لهم راي رسول الله صلى الله عليه وسلم، فلما جاء رسول الله صلى الله عليه وسلم اخبر الله رسوله بامرهم كله وما ارادوا، فانزل الله عز وجل: * (يا ايها الرسول لا يحزنك الذين يسارعون في الكفر من الذين قالوا: آمنا) * إلى قوله: * (ومن لم يحكم بما انزل الله فاولئك هم الفاسقون) *، ثم قال: فيهما والله نزلت، وإياهما عنى الله عز وجل".-" إن الله عز وجل أنزل: * (ومن لم يحكم بما أنزل الله فأولئك هم الكافرون) * و* (أولئك هم الظالمون) * و * (أولئك هم الفاسقون) *. قال ابن عباس: أنزلها الله في الطائفتين من اليهود، وكانت إحداهما قد قهرت الأخرى في الجاهلية حتى ارتضوا واصطلحوا على أن كل قتيل قتله (العزيزة) من (الذليلة) فديته خمسون وسقا، وكل قتيل قتله (الذليلة) من (العزيزة) فديته مائة وسق، فكانوا على ذلك، حتى قدم النبي صلى الله عليه وسلم المدينة، فذلت الطائفتان كلتاهما لمقدم رسول الله صلى الله عليه وسلم، ويؤمئذ لم يظهر ولم يوطئهما عليه (¬1) وهو في الصلح، فقتلت الذليلة من العزيزة قتيلا، فأرسلت (العزيزة) إلى (الذليلة) أن ابعثوا إلينا بمائة وسق، فقالت (الذليلة): وهل كان هذا في حيين قط دينهما واحد، ونسبهما واحد، وبلدهما واحد، دية بعضهم نصف دية بعض؟! إنا إنما أعطيناكم هذا ضيما ¬ (¬1) لفظ الطبراني:" ورسول الله صلى الله عليه وسلم يؤمئذ لم يظهر عليهم ولم يوطئهما، وهو الصلح". اهـ. منكم لنا، وفرقا منكم، فأما إذ قدم محمد فلا نعطيكم ذلك، فكادت الحرب تهيج بينهما، ثم ارتضوا على أن يجعلوا رسول الله صلى الله عليه وسلم بينهما، ثم ذكرت (العزيزة) فقالت: والله ما محمد بمعطيكم منهم ضعف ما يعطيهم منكم، ولقد صدقوا، ما أعطونا هذا إلا ضيما منا وقهرا لهم، فدسوا إلى محمد من يخبر لكم رأيه، إن أعطاكم ما تريدون حكمتموه وإن لم يعطكم حذرتم فلم تحكموه. فدسوا إلى رسول الله صلى الله عليه وسلم ناسا من المنافقين ليخبروا لهم رأي رسول الله صلى الله عليه وسلم، فلما جاء رسول الله صلى الله عليه وسلم أخبر الله رسوله بأمرهم كله وما أرادوا، فأنزل الله عز وجل: * (يا أيها الرسول لا يحزنك الذين يسارعون في الكفر من الذين قالوا: آمنا) * إلى قوله: * (ومن لم يحكم بما أنزل الله فأولئك هم الفاسقون) *، ثم قال: فيهما والله نزلت، وإياهما عنى الله عز وجل".
سیدنا عبداللہ بن عباس رضی اللہ عنہما کہتے ہیں: اللہ تعالی نے یہ آیات نازل کیں: اور جو لوگ اللہ کی اتاری ہوئی وحی کے ساتھ فیصلہ نہ کریں وہ کافر ہیں اور وہ لوگ ظالم ہیں اور وہ لوگ فاسق ہیں انہوں نے کہا: اللہ تعالی نے یہ آیات یہودیوں کے دو گروہوں کے بارے میں نازل کیں، ان میں سے ایک نے دور جاہلیت میں دوسرے کو زیر کر لیا تھا، حتی کہ وہ راضی ہو گئے اور اس بات پر صلح کر لی کہ عزیزہ قبیلے نے ذلیلہ قبیلے کا جو آدمی قتل کیا، اس کی دیت پچاس وسق ہو گی اور ذلیلہ کا جو آدمی قتل کیا اس کی دیت سو (۱۰۰) وسق ہو گی، وہ اسی معاہدے پر برقرار تھے کہ نبی کریم صلی اللہ علیہ وسلم مدینہ تشریف لائے، آپ صلی اللہ علیہ وسلم کے آنے سے وہ دونوں قبیلے بے وقعت ہو گئے، حالانکہ ابھی تک آپ ان پر و صفائی کا زمانہ تھا۔ ادھر ذلیلہ نے عزیزہ کا بندہ قتل کر دیا، عزیزہ نے ذلیلہ کی طرف پیغام بھیجا کہ سو وسق ادا کرو۔ ذلیلہ والوں نے کہا: جن قبائل کا دین ایک ہو اور شہر ایک ہو، تو کیا یہ ہو سکتا ہے کہ ایک کی دیت دوسرے کی بہ نسبت نصف ہو؟ ہم تمہارے ظلم و ستم کی وجہ سے تمہیں (سو وسق) دیتے رہے، اب جبکہ محمد (صلی اللہ علیہ وسلم ) آ چکے ہیں، ہم تمہیں نہیں دیں گے۔ ان کے مابین جنگ کے شعلے بھڑکنے والے ہی تھے کہ وہ آپس میں رسول اللہ صلی اللہ علیہ وسلم پر بحیثیت فیصل راضی ہو گئے۔ عزیزہ کے ورثا آپس میں کہنے لگے: اللہ کی قسم! محمد (صلی اللہ علیہ وسلم ) تمہارے حق میں دو گنا کا فیصلہ نہیں کرے گا، ذلیلہ والے ہیں بھی سچے کہ وہ ہمارے ظلم و ستم اور قہر و جبر کی وجہ سے دو گناہ دیتے رہے، اب محمد (صلی اللہ علیہ وسلم ) کے پاس کسی آدمی کو بطور جاسوس بھیجو جو تمہیں اس کے فیصلے سے آگاہ کر سکے، اگر وہ تمہارے ارادے کے مطابق فیصلہ کر دے تو تم اسے حاکم تسلیم کر لینا اور اگر اس نے ایسے نہ کیا تو محتاط رہنا اور اسے فیصل تسلیم نہیں کرنا۔ سو انہوں نے رسول اللہ صلی اللہ علیہ وسلم کے پاس کچھ منافق لوگوں کو بطور جاسوس بھیجا، جب وہ رسول اللہ صلی اللہ علیہ وسلم کے پاس پہنچے تو اللہ تعالی نے اپنے رسول کو ان کی تمام سازشوں اور ارادوں سے آگاہ کر دیا اور یہ آیات نازل فرمائیں: اے رسول! آپ ان کے پیچھے نہ کڑھیے جو کفر میں سبقت کر رہے ہیں خواہ وہ ان میں سے ہوں جو زبانی تو ایمان کا دعوہ تو کرتے ہیں لیکن حقیقت میں ان کے دل با ایمان نہیں۔۔۔۔ اور جو اللہ کی اتاری ہوئی وحی کے ساتھ فیصلہ نہ کریں وہ کافر ہیں۔ (سورہ مائدہ: 41-44) پھر کہا: اللہ کی قسم! یہ آیتیں انہی دونوں کے بارے میں نازل ہوئیں اور اللہ تعالی کی مراد یہی لوگ تھے۔
حدیث نمبر: 141
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-" قوله: * (ومن لم يحكم بما انزل الله فاولئك هم الكافرون) *، * (ومن لم يحكم بما انزل الله فاولئك هم الظالمون) *، * (ومن لم يحكم بما انزل الله فاولئك هم الفاسقون) *، قال: هي في الكفار كلها".-" قوله: * (ومن لم يحكم بما أنزل الله فأولئك هم الكافرون) *، * (ومن لم يحكم بما أنزل الله فأولئك هم الظالمون) *، * (ومن لم يحكم بما أنزل الله فأولئك هم الفاسقون) *، قال: هي في الكفار كلها".
سیدنا برا بن عازب رضی اللہ عنہ سے روایت ہے کہ نبی کریم صلی اللہ علیہ وسلم نے فرمایا: اور جو لوگ اللہ تعالی کی اتاری ہوئی وحی کے ساتھ فیصلے نہ کریں وہ پورے اور پختہ کافر ہیں (سورہ مائدہ:۴۴) اور جو لوگ اللہ تعالی کے نازل کئے ہوئے کے مطابق حکم نہ کریں وہی لوگ ظالم ہیں (سورہ مائدہ: ۴۵) اور جو اللہ تعالی کے نازل کردہ سے ہی حکم نہ کریں وہ بدکار فاسق ہیں (سورہ مائدہ: ۴۷) یہ تمام آیات کفار کے بارے میں نازل ہوئیں۔

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