80. «ومن لم يحكم بما أنزل الله فأولئك هم الكافرون» (سورہ مائدہ: ۴۴) «ومن لم يحكم بما أنزل الله فأولئك هم الظالمون» (سورہ مائدہ: ۴۵) «ومن لم يحكم بما أنزل الله فأولئك هم الفاسقون» (سورہ مائدہ: ۴۷) کی تفسیر
-" إن الله عز وجل انزل: * (ومن لم يحكم بما انزل الله فاولئك هم الكافرون) * و* (اولئك هم الظالمون) * و * (اولئك هم الفاسقون) *. قال ابن عباس: انزلها الله في الطائفتين من اليهود، وكانت إحداهما قد قهرت الاخرى في الجاهلية حتى ارتضوا واصطلحوا على ان كل قتيل قتله (العزيزة) من (الذليلة) فديته خمسون وسقا، وكل قتيل قتله (الذليلة) من (العزيزة) فديته مائة وسق، فكانوا على ذلك، حتى قدم النبي صلى الله عليه وسلم المدينة، فذلت الطائفتان كلتاهما لمقدم رسول الله صلى الله عليه وسلم، ويؤمئذ لم يظهر ولم يوطئهما عليه (¬1) وهو في الصلح، فقتلت الذليلة من العزيزة قتيلا، فارسلت (العزيزة) إلى (الذليلة) ان ابعثوا إلينا بمائة وسق، فقالت (الذليلة): وهل كان هذا في حيين قط دينهما واحد، ونسبهما واحد، وبلدهما واحد، دية بعضهم نصف دية بعض؟! إنا إنما اعطيناكم هذا ضيما ¬ (¬1) لفظ الطبراني:" ورسول الله صلى الله عليه وسلم يؤمئذ لم يظهر عليهم ولم يوطئهما، وهو الصلح". اهـ. منكم لنا، وفرقا منكم، فاما إذ قدم محمد فلا نعطيكم ذلك، فكادت الحرب تهيج بينهما، ثم ارتضوا على ان يجعلوا رسول الله صلى الله عليه وسلم بينهما، ثم ذكرت (العزيزة) فقالت: والله ما محمد بمعطيكم منهم ضعف ما يعطيهم منكم، ولقد صدقوا، ما اعطونا هذا إلا ضيما منا وقهرا لهم، فدسوا إلى محمد من يخبر لكم رايه، إن اعطاكم ما تريدون حكمتموه وإن لم يعطكم حذرتم فلم تحكموه. فدسوا إلى رسول الله صلى الله عليه وسلم ناسا من المنافقين ليخبروا لهم راي رسول الله صلى الله عليه وسلم، فلما جاء رسول الله صلى الله عليه وسلم اخبر الله رسوله بامرهم كله وما ارادوا، فانزل الله عز وجل: * (يا ايها الرسول لا يحزنك الذين يسارعون في الكفر من الذين قالوا: آمنا) * إلى قوله: * (ومن لم يحكم بما انزل الله فاولئك هم الفاسقون) *، ثم قال: فيهما والله نزلت، وإياهما عنى الله عز وجل".-" إن الله عز وجل أنزل: * (ومن لم يحكم بما أنزل الله فأولئك هم الكافرون) * و* (أولئك هم الظالمون) * و * (أولئك هم الفاسقون) *. قال ابن عباس: أنزلها الله في الطائفتين من اليهود، وكانت إحداهما قد قهرت الأخرى في الجاهلية حتى ارتضوا واصطلحوا على أن كل قتيل قتله (العزيزة) من (الذليلة) فديته خمسون وسقا، وكل قتيل قتله (الذليلة) من (العزيزة) فديته مائة وسق، فكانوا على ذلك، حتى قدم النبي صلى الله عليه وسلم المدينة، فذلت الطائفتان كلتاهما لمقدم رسول الله صلى الله عليه وسلم، ويؤمئذ لم يظهر ولم يوطئهما عليه (¬1) وهو في الصلح، فقتلت الذليلة من العزيزة قتيلا، فأرسلت (العزيزة) إلى (الذليلة) أن ابعثوا إلينا بمائة وسق، فقالت (الذليلة): وهل كان هذا في حيين قط دينهما واحد، ونسبهما واحد، وبلدهما واحد، دية بعضهم نصف دية بعض؟! إنا إنما أعطيناكم هذا ضيما ¬ (¬1) لفظ الطبراني:" ورسول الله صلى الله عليه وسلم يؤمئذ لم يظهر عليهم ولم يوطئهما، وهو الصلح". اهـ. منكم لنا، وفرقا منكم، فأما إذ قدم محمد فلا نعطيكم ذلك، فكادت الحرب تهيج بينهما، ثم ارتضوا على أن يجعلوا رسول الله صلى الله عليه وسلم بينهما، ثم ذكرت (العزيزة) فقالت: والله ما محمد بمعطيكم منهم ضعف ما يعطيهم منكم، ولقد صدقوا، ما أعطونا هذا إلا ضيما منا وقهرا لهم، فدسوا إلى محمد من يخبر لكم رأيه، إن أعطاكم ما تريدون حكمتموه وإن لم يعطكم حذرتم فلم تحكموه. فدسوا إلى رسول الله صلى الله عليه وسلم ناسا من المنافقين ليخبروا لهم رأي رسول الله صلى الله عليه وسلم، فلما جاء رسول الله صلى الله عليه وسلم أخبر الله رسوله بأمرهم كله وما أرادوا، فأنزل الله عز وجل: * (يا أيها الرسول لا يحزنك الذين يسارعون في الكفر من الذين قالوا: آمنا) * إلى قوله: * (ومن لم يحكم بما أنزل الله فأولئك هم الفاسقون) *، ثم قال: فيهما والله نزلت، وإياهما عنى الله عز وجل".
سیدنا عبداللہ بن عباس رضی اللہ عنہما کہتے ہیں: اللہ تعالی نے یہ آیات نازل کیں: ”اور جو لوگ اللہ کی اتاری ہوئی وحی کے ساتھ فیصلہ نہ کریں وہ کافر ہیں“ اور ”وہ لوگ ظالم ہیں“ اور ”وہ لوگ فاسق ہیں“ انہوں نے کہا: اللہ تعالی نے یہ آیات یہودیوں کے دو گروہوں کے بارے میں نازل کیں، ان میں سے ایک نے دور جاہلیت میں دوسرے کو زیر کر لیا تھا، حتی کہ وہ راضی ہو گئے اور اس بات پر صلح کر لی کہ عزیزہ قبیلے نے ذلیلہ قبیلے کا جو آدمی قتل کیا، اس کی دیت پچاس وسق ہو گی اور ذلیلہ کا جو آدمی قتل کیا اس کی دیت سو (۱۰۰) وسق ہو گی، وہ اسی معاہدے پر برقرار تھے کہ نبی کریم صلی اللہ علیہ وسلم مدینہ تشریف لائے، آپ صلی اللہ علیہ وسلم کے آنے سے وہ دونوں قبیلے بے وقعت ہو گئے، حالانکہ ابھی تک آپ ان پر و صفائی کا زمانہ تھا۔ ادھر ذلیلہ نے عزیزہ کا بندہ قتل کر دیا، عزیزہ نے ذلیلہ کی طرف پیغام بھیجا کہ سو وسق ادا کرو۔ ذلیلہ والوں نے کہا: جن قبائل کا دین ایک ہو اور شہر ایک ہو، تو کیا یہ ہو سکتا ہے کہ ایک کی دیت دوسرے کی بہ نسبت نصف ہو؟ ہم تمہارے ظلم و ستم کی وجہ سے تمہیں (سو وسق) دیتے رہے، اب جبکہ محمد (صلی اللہ علیہ وسلم ) آ چکے ہیں، ہم تمہیں نہیں دیں گے۔ ان کے مابین جنگ کے شعلے بھڑکنے والے ہی تھے کہ وہ آپس میں رسول اللہ صلی اللہ علیہ وسلم پر بحیثیت فیصل راضی ہو گئے۔ عزیزہ کے ورثا آپس میں کہنے لگے: اللہ کی قسم! محمد (صلی اللہ علیہ وسلم ) تمہارے حق میں دو گنا کا فیصلہ نہیں کرے گا، ذلیلہ والے ہیں بھی سچے کہ وہ ہمارے ظلم و ستم اور قہر و جبر کی وجہ سے دو گناہ دیتے رہے، اب محمد (صلی اللہ علیہ وسلم ) کے پاس کسی آدمی کو بطور جاسوس بھیجو جو تمہیں اس کے فیصلے سے آگاہ کر سکے، اگر وہ تمہارے ارادے کے مطابق فیصلہ کر دے تو تم اسے حاکم تسلیم کر لینا اور اگر اس نے ایسے نہ کیا تو محتاط رہنا اور اسے فیصل تسلیم نہیں کرنا۔ سو انہوں نے رسول اللہ صلی اللہ علیہ وسلم کے پاس کچھ منافق لوگوں کو بطور جاسوس بھیجا، جب وہ رسول اللہ صلی اللہ علیہ وسلم کے پاس پہنچے تو اللہ تعالی نے اپنے رسول کو ان کی تمام سازشوں اور ارادوں سے آگاہ کر دیا اور یہ آیات نازل فرمائیں: ”اے رسول! آپ ان کے پیچھے نہ کڑھیے جو کفر میں سبقت کر رہے ہیں خواہ وہ ان میں سے ہوں جو زبانی تو ایمان کا دعوہ تو کرتے ہیں لیکن حقیقت میں ان کے دل با ایمان نہیں۔۔۔۔ اور جو اللہ کی اتاری ہوئی وحی کے ساتھ فیصلہ نہ کریں وہ کافر ہیں۔“(سورہ مائدہ: 41-44) پھر کہا: اللہ کی قسم! یہ آیتیں انہی دونوں کے بارے میں نازل ہوئیں اور اللہ تعالی کی مراد یہی لوگ تھے۔
हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास रज़ि अल्लाहु अन्हुमा कहते हैं कि अल्लाह तआला ने ये आयतें उतारीं ! “और जो लोग अल्लाह की उतारी हुई वहि के साथ फ़ैसला न करें वे काफ़िर हैं” और “वे लोग ज़ालिम हैं” और “वे लोग झूठे हैं” उन्हों ने कहा कि अल्लाह तआला ने ये आयतें यहूदियों के दो समूहों के बारे में उतारीं, इन में से एक ने जाहिलियत के ज़माने में दूसरे को दबा लिया था, यहां तक कि मेल मिलाप हो गया और इस बात पर मिलाप कर लिया कि अज़ीज़ह क़बीले ने ज़लीलह क़बीले का जो आदमी क़त्ल किया, उसकी दयत पचास वसक़ होगी और ज़लीलह का जो आदमी क़त्ल किया उसकी दयत सौ वसक़ होगी, वह इसी समझौते पर बने रहे थे कि नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम मदीना आए, आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के आने से वे दोनों क़बीले कमज़ोर होगए। उधर ज़लीलह ने अज़ीज़ह का बंदा क़त्ल कर दिया, अज़ीज़ह ने ज़लीलह की तरफ़ संदेश भेजा कि सौ वसक़ दो। ज़लीलह वालों ने कहा कि जिन क़बीलों का दीन एक हो और शहर एक हो, तो क्या ये हो सकता है कि एक की दयत दूसरे की तुलना में आधा हो ? हम तुम्हारे ज़ुल्म और सितम के कारण तुम्हें (सौ वसक़) देते रहे, अब जबकि मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) आ चुके हैं, हम तुम्हें नहीं देंगे। उनके बीच में जंग की आग भड़कने वाली ही थी कि वे आपस में रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को फ़ैसला करने वाला मानने पर राज़ी होगए। अज़ीज़ह के लोग आपस में कहने लगे कि अल्लाह की क़सम, मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) तुम्हारे हक़ में दो गुना का फ़ैसला नहीं करेंगे, ज़लीलह वाले हैं भी सच्चे कि वे हमारे ज़ुल्म और ज़ोर ज़बरदस्ती के कारण दो गुना देते रहे, अब मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के पास किसी आदमी को जासूसी के लिए भेजो जो तुम्हें उसके फ़ैसले से ख़बरदार कर सके, अगर वह तुम्हारे इरादे के अनुसार फ़ैसला करदे तो तुम उसे मुखिया स्वीकार कर लेना और यदि उसने ऐसे न किया तो सावधान रहना और उसे फ़ैसला करने वाला स्वीकार नहीं करना। तो उन्हों ने रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के पास कुछ मुनाफ़िक़ लोगों को जासूसी के लिए भेजा, जब वे रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के पास पहुंचे तो अल्लाह तआला ने अपने रसूल को उनकी सारी साज़िशों और इरादों से ख़बरदार कर दिया और ये आयतें उतारीं ! « يَا أَيُّهَا الرَّسُولُ لَا يَحْزُنكَ الَّذِينَ يُسَارِعُونَ فِي الْكُفْرِ مِنَ الَّذِينَ قَالُوا آمَنَّا بِأَفْوَاهِهِمْ وَلَمْ تُؤْمِن قُلُوبُهُمْ » “ऐ रसूल, आप उनके पीछे न कुढ़िये जो कुफ़्र में बढ़े जा रहे हैं चाहे वे उन में से हों जो ज़बानी तो ईमान का दावा तो करते हैं लेकिन हक़ीक़त में उनके दिल में ईमान नहीं” (सूरत अल-माइदा:41), « وَمَن لَّمْ يَحْكُم بِمَا أَنزَلَ اللَّـهُ فَأُولَـٰئِكَ هُمُ الْكَافِرُونَ » “और जो अल्लाह की उतारी हुई वहि के साथ फ़ैसला न करें वे काफ़िर हैं।” (सूरत अल-माइदा:44) फिर कहा कि अल्लाह की क़सम, ये आयतें उन्ही दोनों के बारे में उतारी गईं और अल्लाह तआला की मुराद यही लोग थे।
سلسله احاديث صحيحه ترقیم البانی: 2552
قال الشيخ الألباني: - " إن الله عز وجل أنزل: * (ومن لم يحكم بما أنزل الله فأولئك هم الكافرون) * و* (أولئك هم الظالمون) * و * (أولئك هم الفاسقون) *. قال ابن عباس: أنزلها الله في الطائفتين من اليهود، وكانت إحداهما قد قهرت الأخرى في الجاهلية حتى ارتضوا واصطلحوا على أن كل قتيل قتله (العزيزة) من (الذليلة) فديته خمسون وسقا، وكل قتيل قتله (الذليلة) من (العزيزة) فديته مائة وسق، فكانوا على ذلك، حتى قدم النبي صلى الله عليه وسلم المدينة، فذلت الطائفتان كلتاهما لمقدم رسول الله صلى الله عليه وسلم ، ويؤمئذ لم يظهر ولم يوطئهما عليه (¬1) وهو في الصلح، فقتلت الذليلة من العزيزة قتيلا، فأرسلت (العزيزة) إلى ( الذليلة) أن ابعثوا إلينا بمائة وسق، فقالت (الذليلة) : وهل كان هذا في حيين قط دينهما واحد، ونسبهما واحد، وبلدهما واحد، دية بعضهم نصف دية بعض ؟ ! إنا إنما أعطيناكم هذا ضيما ¬ (¬1) لفظ الطبراني: " ورسول الله صلى الله عليه وسلم يؤمئذ لم يظهر عليهم ولم يوطئهما، وهو الصلح ". اهـ. منكم لنا، وفرقا منكم، فأما إذ قدم محمد فلا نعطيكم ذلك، فكادت الحرب تهيج بينهما، ثم ارتضوا على أن يجعلوا رسول الله صلى الله عليه وسلم بينهما، ثم ذكرت (العزيزة) فقالت: والله ما محمد بمعطيكم منهم ضعف ما يعطيهم منكم، ولقد صدقوا، ما أعطونا هذا إلا ضيما منا وقهرا لهم، فدسوا إلى محمد من يخبر لكم رأيه، إن أعطاكم ما تريدون حكمتموه وإن لم يعطكم حذرتم فلم تحكموه. فدسوا إلى رسول الله صلى الله عليه وسلم ناسا من المنافقين ليخبروا لهم رأي رسول الله صلى الله عليه وسلم ، فلما جاء رسول الله صلى الله عليه وسلم أخبر الله رسوله بأمرهم كله وما أرادوا، فأنزل الله عز وجل: * (يا أيها الرسول لا يحزنك الذين يسارعون في الكفر من الذين قالوا: آمنا) * إلى قوله: * (ومن لم يحكم بما أنزل الله فأولئك هم الفاسقون) *، ثم قال: فيهما والله نزلت، وإياهما عنى الله عز وجل ". _____________________ __________ أخرجه أحمد (1 / 246) والطبراني في " المعجم الكبير " (3 / 95 / 1) من طريق عبد الرحمن بن أبي الزناد عن أبيه عن عبيد الله بن عبد الله بن عتبة بن مسعود عن ابن عباس قال: فذكره. وعزاه السيوطي في " الدر المنثور " (2 / 281) لأبي داود أيضا وابن جرير وابن المنذر وأبي الشيخ وابن مردويه عن ابن عباس، وهو عند ابن جرير في " التفسير " (12037 ج 10 / 352) من هذا الوجه، لكنه لم يذكر في إسناده ابن عباس. وعند أبي داود (3576) نزول الآيات الثلاث في اليهود خاصة في قريظة والنضير. فقط خلافا لما يوهمه قول ابن كثير في " التفسير " (6 / 160) بعد ما ساق رواية أحمد هذه المطولة: " ورواه أبو داود من حديث ابن أبي الزناد عن أبيه نحوه "! __________جزء : 6 /صفحہ : 110__________ وقد نقل عنه صاحب " الروض الباسم في الذب عن سنة أبي القاسم " أنه حسن إسناده. ولم أر هذا في كتابه: " التفسير " ، فلعله في بعض كتبه الأخرى. وتحسين هذا الإسناد هو الذي تقتضيه قواعد هذا العلم الشريف، فإن مداره على عبد الرحمن بن أبي الزناد، وهو كما قال الحافظ : " صدوق، تغير حفظه لما قدم بغداد، وكان فقيها ". فقول الهيثمي (7 / 16) : " رواه أحمد والطبراني بنحوه، وفيه عبد الرحمن بن أبي الزناد، وهو ضعيف ، وقد وثق، وبقية رجال أحمد ثقات ". قلت: فقوله فيه: " ضعيف، وقد وثق " ليس بجيد لأنه يرجح قول من ضعفه على قول من وثقه، والحق أنه وسط حسن الحديث، إلا أن يخالف وهذا مما لا يستفاد من قوله المذكور فيه. والله أعلم. (فائدة هامة) : إذا علمت أن الآيات الثلاث: * (ومن لم يحكم بما أنزل الله فأولئك هم الكافرون) *، * (فأولئك هم الظالمون) *، * (فأولئك هم الفاسقون) * نزلت في اليهود وقولهم في حكمه صلى الله عليه وسلم : " إن أعطاكم ما تريدون حكمتموه، وإن لم يعطكم حذرتم فلم تحكموه "، وقد أشار القرآن إلى قولهم هذا قبل هذه الآيات فقال: * (يقولون إن أوتيتم هذا فخذوه، وإن لم تؤتوه فاحذروا) *، إذا عرفت هذا، فلا يجوز حمل هذه الآيات على بعض الحكام المسلمين وقضاتهم الذين يحكمون بغير ما أنزل الله من القوانين الأرضية، أقول: لا يجوز تكفيرهم بذلك، وإخراجهم من الملة إذا كانوا مؤمنين بالله ورسوله، وإن كانوا مجرمين بحكمهم بغير ما أنزل الله، لا يجوز ذلك، لأنهم وإن كانوا كاليهود من جهة حكمهم المذكور، فهم مخالفون لهم من جهة __________جزء : 6 /صفحہ : 111__________ أخرى، ألا وهي إيمانهم وتصديقهم بما أنزل الله، بخلاف اليهود الكفار، فإنهم كانوا جاحدين له كما يدل عليه قولهم المتقدم: " ... وإن لم يعطكم حذرتموه فلم تحكموه "، بالإضافة إلى أنهم ليسوا مسلمين أصلا، وسر هذا أن الكفر قسمان: اعتقادي وعملي. فالاعتقادي مقره القلب. والعملي محله الجوارح. فمن كان عمله كفرا لمخالفته للشرع، وكان مطابقا لما وقر في قلبه من الكفر به، فهو الكفر الاعتقادي، وهو الكفر الذي لا يغفره الله، ويخلد صاحبه في النار أبدا. وأما إذا كان مخالفا لما وقر في قلبه، فهو مؤمن بحكم ربه، ولكنه يخالفه بعمله، فكفره كفر عملي فقط، وليس كفرا اعتقاديا، فهو تحت مشيئة الله تعالى إن شاء عذبه، وإن شاء غفر له، وعلى هذا النوع من الكفر تحمل الأحاديث التي فيها إطلاق الكفر على من فعل شيئا من المعاصي من المسلمين، ولا بأس من ذكر بعضها: 1 - اثنتان في الناس هما بهم كفر، الطعن في الأنساب والنياحة على الميت. رواه مسلم. (¬1) 2 - الجدال في القرآن كفر. (¬2) 3 - سباب المسلم فسوق، وقتاله كفر. رواه مسلم. (¬3) 4 - كفر بالله تبرؤ من نسب وإن دق. (¬4) 5 - التحدث بنعمة الله شكر، وتركها كفر . (¬5) 6 - لا ترجعوا بعدي كفارا، يضرب بعضكم رقاب بعض. متفق عليه. (¬6) ¬ __________ (¬1) تخريج " الطحاوية " (ص 298) . (¬2) " صحيح الجامع الصغير " (3 / 83 / 3101) . (¬3) تخريج " الإيمان " لأبي عبيد (ص 86) ، وتخريج " الحلال " (رقم 341) . (¬4) " الروض النضير " (رقم 587) . (¬5) " الأحاديث الصحيحة " (رقم 667) (¬6) " الروض النضير " (رقم 797) ، و " الأحاديث الصحيحة " رقم (1974) . __________جزء : 6 /صفحہ : 112__________ إلى غير ذلك من الأحاديث الكثيرة التي لا مجال الآن لاستقصائها. فمن قام من المسلمين بشيء من هذه المعاصي، فكفره كفر عملي، أي إنه يعمل عمل الكفار، إلا أن يستحلها، ولا يرى كونها معصية فهو حينئذ كافر حلال الدم، لأنه شارك الكفار في عقيدتهم أيضا، والحكم بغير ما أنزل الله، لا يخرج عن هذه القاعدة أبدا، وقد جاء عن السلف ما يدعمها، وهو قولهم في تفسير الآية: " كفر دون كفر "، صح ذلك عن ترجمان القرآن عبد الله بن عباس رضي الله عنه، ثم تلقاه عنه بعض التابعين وغيرهم، ولابد من ذكر ما تيسر لي عنهم لعل في ذلك إنارة للسبيل أمام من ضل اليوم في هذه المسألة الخطيرة، ونحا نحو الخوارج الذين يكفرون المسلمين بارتكابهم المعاصي، وإن كانوا يصلون ويصومون! 1 - روى ابن جرير الطبري (10 / 355 / 12053) بإسناد صحيح عن ابن عباس: * (ومن لم يحكم بما أنزل الله فأولئك هم الكافرون) * قال: هي به كفر، وليس كفرا بالله وملائكته وكتبه ورسله. 2 - وفي رواية عنه في هذه الآية: إنه ليس بالكفر الذي يذهبون إليه (¬1) ، إنه ليس كفرا ينقل عن الملة، كفر دون كفر. أخرجه الحاكم (2 / 313 ) وقال: " صحيح الإسناد ". ووافقه الذهبي، وحقهما أن يقولا: على شرط الشيخين. فإن إسناده كذلك. ثم رأيت الحافظ ابن كثير نقل في " تفسيره " (6 / 163) عن الحاكم أنه قال: " صحيح على شرط الشيخين "، فالظاهر أن في نسخة " المستدرك " المطبوعة سقطا، وعزاه ابن كثير لابن أبي حاتم أيضا ببعض اختصار. 3 - وفي أخرى عنه من رواية علي بن أبي طلحة عن ابن عباس قال: من ¬ __________ (¬1) كأنه يشير إلى الخوارج الذين خرجوا على علي رضي الله عنه. __________جزء : 6 /صفحہ : 113__________ جحد ما أنزل الله فقد كفر، ومن أقر به ولم يحكم فهو ظالم فاسق. أخرجه ابن جرير (12063 ) . قلت: وابن أبي طلحة لم يسمع من ابن عباس، لكنه جيد في الشواهد. 4 - ثم روى (12047 - 12051) عن عطاء بن أبي رباح قوله: (وذكر الآيات الثلاث) : كفر دون كفر، وفسق دون فسق، وظلم دون ظلم. وإسناده صحيح. 5 - ثم روى ( 12052) عن سعيد المكي عن طاووس (وذكر الآية) قال: ليس بكفر ينقل عن الملة . وإسناده صحيح، وسعيد هذا هو ابن زياد الشيباني المكي، وثقه ابن معين والعجلي وابن حبان وغيرهم، وروى عنه جمع. 6 - وروى (12025 و 12026) من طريقين عن عمران بن حدير قال: أتى أبا مجلز (¬1) ناس من بني عمرو بن سدوس ( وفي الطريق الأخرى: نفر من الإباضية) (¬2) فقالوا: أرأيت قول الله: * (ومن لم يحكم بما أنزل الله فأولئك هم الكافرون) * أحق هو؟ قال: نعم. قالوا: * ( ومن لم يحكم بما أنزل الله فأولئك هم الظالمون) * أحق هو؟ قال: نعم. قالوا : * (ومن لم يحكم بما أنزل الله فأولئك هم الفاسقون) * أحق هو؟ قال: نعم. قال: فقالوا: يا أبا مجلز فيحكم هؤلاء بما أنزل الله؟ قال: هو دينهم الذي يدينون به، وبه يقولون وإليه يدعون -[يعني الأمراء]- فإن هم تركوا شيئا منه عرفوا أنهم أصابوا ذنبا. فقالوا: لا والله، ولكنك تفرق (¬3) . قال: أنتم أولى بهذا مني! لا أرى، وإنكم أنتم ترون هذا ولا تحرجون، ولكنها أنزلت في اليهود والنصارى وأهل الشرك. أو نحوا من هذا، وإسناده صحيح. وقد اختلف العلماء في تفسير الكفر في الآية الأولى على خمسة أقوال ¬ __________ (¬1) من كبار ثقات التابعين واسمه لاحق بن حميد البصري. (¬2) طائفة من الخوارج. (¬3) أي: تجزع وتخاف. __________جزء : 6 /صفحہ : 114__________ ساقها ابن جرير (10 / 346 - 357) بأسانيده إلى قائليها، ثم ختم ذلك بقوله (10 / 358 ) : " وأولى هذه الأقوال عندي بالصواب قول من قال: نزلت هذه الآيات في كف