اللٰهم إني اعوذ بك ان اشرك بك وانا اعلم، واستغفرك لما لا اعلم اَللَٰهُمَّ إِنِّي أَعُوذُ بِكَ أَنْ أُشْرِكَ بِكَ وَأَنَا أَعْلَمُ، وَأَسْتَغْفِرُكَ لِمَا لَا أَعْلَمُ
”اے اللہ! میں تیری پناہ میں آتا ہوں اس بات سے کہ تیرے ساتھ شرک کروں اور میں جانتا ہوں، اور جس کے بارے میں میں نہیں جانتا اس کے لئے تجھ سے بخشش طلب کرتا ہوں۔“[اسناده ضعيف، مسند احمد: 403/4، الادب المفرد للبخاري: 716]
“ऐ अल्लाह ! मैं तेरी शरण में आता हूँ इस बात से कि मैं जानते हुए किसी को तेरा साझी बनाऊँ, और जिस (शिर्क) के बारे में, मैं नहीं जानता उस के लिए तुझ से क्षमा की मांग करता हूँ ।” [असनादा ज़ईफ़, मसनद अहमद: 403/4, अलअदब अलमुफ़रद लिल्बुख़ारी: 716]