اللٰهم اعوذ برضاك من سخطك، وبمعافاتك من عقوبتك، واعوذ بك منك لا احصي ثناء عليك انت كما اثنيت على نفسك اللّٰهُمَّ أَعُوذُ بِرِضَاكَ مِنْ سَخَطِكَ، وَبِمُعَافَاتِكَ مِنْ عُقُوبَتِكَ، وَأَعُوذُ بِكَ مِنْكَ لَا أُحْصِي ثَنَاءً عَلَيْكَ أَنْتَ كَمَا أَثْنَيْتَ عَلَى نَفْسِكَ
”اے اللہ! میں تیری خوشنودی کے ساتھ تیری ناراضگی سے، تیری عافیت کے ساتھ تیری سزا سے، (تیری) پناہ میں آتا ہوں، میں تجھ سے تیری ہی پناہ طلب کرتا ہوں، میں تیری تعریف (کےکلمات) شمار نہیں کر سکتا، تو اسی طرح ہے جس طرح تو نے خود اپنی تعریف کی۔“[صحيح مسلم:486]
“ऐ अल्लाह ! मैं तेरी ख़ुशी के साथ तेरी नाराज़गी से, तेरी भलाई के साथ तेरी सज़ा से, तेरी शरण में आता हूँ, मैं तुझ से तेरी ही शरण की मांग करता हूँ, मैं पूरी तरह तेरी ताअरीफ़ नहीं कर सकता, तू उसी तरह है जिस तरह तू ने अपनी ताअरीफ़ की ।” [सहीह मुस्लिम: 486]