الٰهم إني اعوذ برضاك من سخطك، وبمعافاتك من عقوبتك، واعوذ بك منك، لا احصي ثناء عليك انت كما اثنيت على نفسك الّٰهُمَّ إِنِّي أَعُوذُ بِرِضَاكَ مِنْ سُخْطِكَ، وَبِمُعَافَاتِكَ مِنْ عُقُوبَتِكَ، وَأَعُوذُ بِكَ مِنْكَ، لَا أُحْصِي ثَنَاءً عَلَيْكَ أَنْتَ كَمَا أَثْنَيْتَ عَلَى نَفْسِكَ
”اے اللہ! یقیناً میں تیری خوشنودی کے ساتھ ناراضگی سے پناہ میں آتا ہوں، تیری معافی کے ساتھ تیری سزا سے پناہ میں آتا ہوں، اور میں تجھ سے تیرے ذریعے ہی پناہ طلب کرتا ہوں، میں تیری حمد و ثنا کو شمار نہیں کر سکتا، تو اسی طرح ہے جس طرح تو نے اپنی تعریف کی۔“[اسناده صحيح، سنن ابي داؤد: 1427، سنن ترمذي: 3566، سنن ابن ماجه: 1179]
“ऐ अल्लाह ! बेशक मैं तेरी ख़ुशी के साथ तेरी नाराज़गी से शरण में आता हूँ, तेरी माफ़ी के साथ तेरी सज़ा से शरण में आता हूँ, और मैं तुझ से तेरे द्वारा ही शरण की मांग करता हूँ, मैं तेरी ताअरीफ़ पूरी तरह नहीं कर सकता, तू उसी तरह है जिस तरह तू ने अपनी ताअरीफ़ की ।” [असनादा सहीह, सुनन अबी दाऊद: 1427, सुनन त्रिमीज़ी: 3566, सुनन इब्न माजा: 1179]