714. قریشیوں نے دور جاہلیت میں تعمیر کعبہ میں کیا کمی کوتا ہی کی؟ تعمیر کعبہ کے بارے میں نبوی اصلاحات، مصلحت سے پہلے مفسدت کو دور کرنا
“ क़ुरैश ने कअबा को बनाने में क्या कमी की और क्यों ، रसूल अल्लाह ﷺ की कमी दूर करने के लिए कअबा को फिर से बनाने की इच्छा ، नेकी करने से पहले रुकावटें दूर करना ”
-" يا عائشة لولا ان قومك حديثو عهد بشرك وليس عندي من النفقة ما يقوي على بنائه لانفقت كنز الكعبة في سبيل الله ولهدمت الكعبة فالزقتها بالارض ثم لبنيتها على اساس إبراهيم وجعلت لها بابين بابا شرقيا يدخل الناس منه وبابا غربيا يخرجون منه والزقتها بالارض وزدت فيها ستة اذرع من الحجر. (وفي رواية: ولادخلت فيها الحجر) فإن قريشا اقتصرتها حيث بنت الكعبة، فإن بدا لقومك من بعدي ان يبنوه فهلمي لاريك ما تركوه منه، فاراها قريبا من سبعة اذرع".-" يا عائشة لولا أن قومك حديثو عهد بشرك وليس عندي من النفقة ما يقوي على بنائه لأنفقت كنز الكعبة في سبيل الله ولهدمت الكعبة فألزقتها بالأرض ثم لبنيتها على أساس إبراهيم وجعلت لها بابين بابا شرقيا يدخل الناس منه وبابا غربيا يخرجون منه وألزقتها بالأرض وزدت فيها ستة أذرع من الحجر. (وفي رواية: ولأدخلت فيها الحجر) فإن قريشا اقتصرتها حيث بنت الكعبة، فإن بدا لقومك من بعدي أن يبنوه فهلمي لأريك ما تركوه منه، فأراها قريبا من سبعة أذرع".
سیدہ عائشہ رضی اللہ عنہا سے روایت ہے کہ رسول اللہ صلی اللہ علیہ وسلم نے فرمایا: ”عائشہ! اگر تیری قوم کا عہد، زمانہ شرک کے قریب قریب نہ ہوتا اور میرے پاس کعبہ کی عمارت (کو مکمل کرنے کے) اخراجات بھی نہیں ہیں، تو میں کعبہ کے خزانے کو اللہ تعالیٰ کے راستے میں خرچ کر دیتا، کعبہ کی عمارت کو گرا دیتا، اس کو زمین کے ساتھ ملا دیتا، پھر ابراہیم علیہ السلام کی بنیادوں پر تعمیر کرتا، پھر اس کے دو دروازے رکھتا جو (بلند ہونے کی بجائے) زمین سے ملے ہوتے، ایک دروازہ مشرقی ہوتا، جس سے لوگ داخل ہوتے اور ایک مغربی ہوتا، جس سے لوگ نکل جاتے اور حطیم کی چھ ہاتھ چھوڑی ہوئی جگہ کو کعبہ کی عمارت میں داخل کر دیتا، کیونکہ قریشیوں نے جب کعبہ کی تعمیر کی تھی تو انہوں نے (اخراجات کی کمی کے باعث اصل عمارت) میں کمی کر دی تھی۔ (عائشہ!) اگر میرے بعد تیری قوم والے دوبارہ اس کی تعمیر کرنا چاہیں تو آؤ میں تمہارے لیے چھوڑی ہوئی جگہ کی نشاندہی کر دیتا ہوں۔“ پھر آپ صلی اللہ علیہ وسلم نے ان کو سات ہاتھ کے لگ بھگ جگہ دکھائی۔ ایک روایت میں ہے: سیدہ عائشہ رضی اللہ عنہا کہتی ہیں: میں نے (کعبہ کی ایک طرف کے) گھیرے یا حطیم کے بارے میں رسول اللہ صلی اللہ علیہ وسلم سے سوال کیا کہ آیا یہ بیت اللہ کا حصہ ہے؟ آپ صلی اللہ علیہ وسلم نے فرمایا: ”ہاں۔“ میں نے کہا: تو پھر (قریشیوں نے) اس کو (عمارت میں) داخل کیوں نہیں کیا؟ آپ صلی اللہ علیہ وسلم نے فرمایا: ”تیری قوم کے لیے اخراجات کم پڑ گئے تھے۔“ میں نے کہا: بیت اللہ کا دروازہ اونچا کیوں ہے؟ آپ صلی اللہ علیہ وسلم نے فرمایا: ”تیری قوم (قریش) نے (جان بوجھ کر) ایسے کیا، تاکہ اپنی مرضی کے مطابق بعض لوگوں کو داخل کریں اور مرضی کے مطابق بعض لوگوں کو روک لیں۔“ ایک روایت میں ہے: انہوں نے ایسا اپنی طاقت (اور فخر) کی بنا پر کیا تاکہ وہی داخل ہو سکے، جس کے بارے میں ان کا ارادہ ہو۔ (جس آدمی کے داخلے کے بارے میں اس کی مرضی نہیں ہوتی تھی تو) وہ اسے چھوڑ دیتے، وہ داخل ہونے کے لیے سیڑھیاں چڑھتا، لیکن جب داخل ہونے لگتا تو وہ اسے دھکا دے دیتے اور وہ گر جاتا تھا۔ اگر تیری قوم کا عہد، زمانہ جاہلیت کے قریب قریب نہ ہونا، تو تو دیکھتی کہ میں حطیم کو بیت اللہ کی عمارت میں داخل کر دیتا اور دروازے کو زمین کے ساتھ ملا دیتا، لیکن مجھے اندیشہ ہے کہ کہیں ان لوگوں کے دل اس کو اجنبی اور عجیب سمجھنے لگیں گے۔“ جب سیدنا عبداللہ بن زبیر رضی اللہ عنہ حکمران بنے تو انہوں نے کعبہ کی عمارت کو گرا دیا اور اس کے دو دروازے رکھ دیے۔ ایک روایت! میں ہے: یہی حدیث تھی، جس نے ابن زبیر کو کعبہ کی عمارت گرانے پر آمادہ کیا۔ یزید بن رومان کہتے ہیں: جب عبداللہ بن زبیر رضی اللہ عنہا نے عمارت کو گرا کر تعمیر کیا اور حطیم کو اس میں داخل کیا، تو میں بھی موجود تھا، میں نے ابراہیم علیہ السلام کی رکھی ہوئی بنیاد دیکھی، اونٹوں کی کوہانوں کی طرح کے (بڑے بڑے) پتھر تھے، جو باہم جڑے ہوئے، (مستحکم) اور ایک دوسرے میں پیوست تھے۔
हज़रत आयशा रज़ि अल्लाहु अन्हा से रिवायत है कि रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया ! “आयशा, यदि तेरी क़ौम ने अभी थोड़े समय पहले ही शिर्क न छोड़ा होता और मेरे पास काअबा की इमारत (को पूरा करने का) ख़र्च भी नहीं है, तो में काअबा के ख़ज़ाने को अल्लाह तआला के रस्ते में ख़र्च कर देता, काअबा की इमारत को गिरा देता, उस को ज़मीन के साथ मिला देता, फिर इब्राहीम अलैहिस्सलाम की बुन्यादों पर बना देता, फिर उस के दो दरवाज़े रखता जो (ऊँचा होने की बजाए) ज़मीन से मिले होते, एक दरवाज़ा पूर्वी होता, जिस से लोग अंदर जाते और एक पश्चिमी होता, जिस से लोग निकल जाते और हतीम की छे हाथ छोड़ी हुई जगह को काअबा की इमारत में शामिल कर देता, क्यूंकि क़ुरैश ने जब काअबा को बनाया था तो उन्हों ने (ख़र्च की कमी के कारण असल इमारत) में कमी कर दी थी। (आयशा) अगर मेरे बाद तेरी क़ौम वाले दोबारा इस को बनाना चाहें तो आओ मैं तुम को छोड़ी हुई जगह दिखा देता हूँ।” फिर आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने उन को सात हाथ के लग भग जगह दिखाई। एक रिवायत में है कि हज़रत आयशा रज़ि अल्लाहु अन्हा कहती हैं ! मैं ने (काअबा की एक ओर) घेरे या हतीम के बारे में रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से पूछा ! क्या यह बेतुल्लाह का भाग है ? आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया ! “हाँ” मैं ने कहा ! तो फिर उन्हों ने इस को (इमारत में) शामिल क्यों नहीं किया ? आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया ! “तेरी क़ौम को ख़र्च के लिए पैसे कम पड़ गए थे।” मैं ने कहा ! बेतुल्लाह का दरवाज़ा ऊँचा क्यों है ? आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया ! “तेरी क़ौम ने ऐसा किया, ताकि अपनी इच्छा के अनुसार कुछ लोगों को अंदर जाने दें और अपनी इच्छा के अनुसार कुछ लोगों को रोकलें।” एक रिवायत में है कि उन्हों ने ऐसा अपनी शक्ति (और घमंड) की बिना पर किया ताकि वही अंदर जा सकें जिन को वे जाने दें। (जिस को वे चाहते थे कि न जाए तो) वे उसे छोड़ देते, वह अंदर जाने के लिए सीढ़ियां चढ़ता, लेकिन जब वह अंदर जाने लगता तो वे उसे धक्का दे देते और वह गिर जाता था। अगर तेरी क़ौम की जाहिलियत का समय पास न होता, तो तू देखती कि मैं हतीम को बेतुल्लाह की इमारत में शामिल कर देता और दरवाज़े को ज़मीन के साथ मिला देता, लेकिन मुझे डर है कि कहीं इन लोगों के दिल इस को अजनबी और अजीब न समझने लगेंगे।” जब हज़रत अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर रज़ि अल्लाहु अन्ह शासक बने तो उन्हों ने काअबा की इमारत को गिरा दिया और उस के दो दरवाज़े रख दिए। एक रिवायत में है कि यही हदीस थी, जिस ने इब्न ज़ुबैर को काअबा की इमारत गिराने पर तैयार किया। यज़ीद बिन रूमान कहते हैं, जब अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर रज़ि अल्लाहु अन्हा ने इमारत को गिरा कर बनाया और हतीम को इस में शामिल किया, तो मैं भी मौजूद था, मैं ने इब्राहीम अलैहिस्सलाम की रखी हुई बुनियाद देखी, ऊँटों की कोहानों की तरह के (बड़े बड़े) पत्थर थे, जो एक दूसरे में जुड़े हुए, (मज़बूत) और एक दूसरे में घुसे हुुए थे।
سلسله احاديث صحيحه ترقیم البانی: 43
قال الشيخ الألباني: - " يا عائشة لولا أن قومك حديثو عهد بشرك وليس عندي من النفقة ما يقوي على بنائه لأنفقت كنز الكعبة في سبيل الله ولهدمت الكعبة فألزقتها بالأرض ثم لبنيتها على أساس إبراهيم وجعلت لها بابين بابا شرقيا يدخل الناس منه وبابا غربيا يخرجون منه وألزقتها بالأرض وزدت فيها ستة أذرع من الحجر. (وفي رواية: ولأدخلت فيها الحجر) فإن قريشا اقتصرتها حيث بنت الكعبة، فإن بدا لقومك من بعدي أن يبنوه فهلمي لأريك ما تركوه منه، فأراها قريبا من سبعة أذرع ". _____________________ وفي رواية عنها قالت: " سألت رسول الله صلى الله عليه وسلم عن الجدر (أي الحجر) ، أمن البيت هو؟ قال: نعم، قلت: فلم لم يدخلوه في البيت؟ قال: إن قومك قصرت بهم النفقة، قلت: فما شأن بابه مرتفعا؟ قال: فعل ذلك قومك ليدخلوا من شاءوا ويمنعوا من شاءوا، (وفي رواية: تعززا أن لا يدخلها إلا من أرادوا، فكان الرجل إذا أراد أن يدخلها يدعونه يرتقي حتى إذا كاد أن يدخل دفعوه فسقط) ولولا أن قومك حديث عهدهم في الجاهلية، فأخاف أن تنكر قلوبهم، لنظرت أن أدخل الجدر في البيت وأن ألزق بابه بالأرض. فلما ملك ابن الزبير هدمها وجعل لها بابين. (وفي رواية فذلك الذي حمل ابن الزبير على هدمه، قال يزيد بن رومان: وقد __________جزء : 1 /صفحہ : 105__________ شهدت ابن الزبير حين هدمه وبناه وأدخل فيه الحجر، وقد رأيت أساس إبراهيم عليه السلام حجارة متلاحمة كأسنمة الإبل متلاحكة) ". (عن عائشة) : رواه البخاري (1 / 44، 491، 3 / 197، 4 / 412) ، ومسلم (4 / 99 - 100) وأبو نعيم في " المستخرج " (ق 174 / 2) ، والنسائي (2 / 34 - 35) ، والترمذي (1 / 166) وصححه، والدارمي (1 / 53 - 54) وابن ماجه (2955) ومالك (1 / 363) ، والأزرقي في " أخبار مكة " (ص 114 - 115، 218 - 219) وأحمد (6 / 57، 67، 92، 102، 113، 136، 176، 179، 239، 247، 253، 262) من طرق عنها. من فقه الحديث: يدل هذا الحديث على أمرين: الأول: أن القيام بالإصلاح إذا ترتب عليه مفسدة أكبر منه وجب تأجيله، ومنه أخذ الفقهاء قاعدتهم المشهورة " دفع المفسدة، قبل جلب المصلحة ". الثاني: أن الكعبة المشرفة بحاجة الآن إلى الإصلاحات التي تضمنها الحديث لزوال السبب الذي من أجله ترك رسول الله صلى الله عليه وسلم ذلك، وهو أن تنفر قلوب من كان حديث عهد بشرك في عهده صلى الله عليه وسلم ، وقد نقل ابن بطال عن بعض العلماء " أن النفرة التي خشيها صلى الله عليه وسلم ، أن ينسبوه إلى الانفراد بالفخر دونهم ". ويمكن حصر تلك الإصلاحات فيما يلي: 1 - توسيع الكعبة وبناؤها على أساس إبراهيم عليه عليه الصلاة والسلام، وذلك بضم نحو ستة أذرع من الحجر. 2 - تسوية أرضها بأرض الحرم. 3 - فتح باب آخر لها من الجهة الغربية. __________جزء : 1 /صفحہ : 106__________ 4 - جعل البابين منخفضين مع الأرض لتنظيم وتيسير الدخول إليها والخروج منها لكل من شاء. ولقد كان عبد الله بن الزبير رضي الله عنهما قد قام بتحقيق هذا الإصلاح بكامله إبان حكمه في مكة، ولكن السياسة الجائرة أعادت الكعبة بعده إلى وضعها السابق! وهاك تفصيل ذلك كما رواه مسلم، وأبو نعيم، بسندهما الصحيح عن عطاء قال: " لما احترق البيت زمن يزيد بن معاوية حين غزاها أهل الشام، فكان من أمره ما كان، تركه ابن الزبير حتى قدم الناس الموسم، يريد أن يجرئهم أو يحربهم على أهل الشام، فلما صدر الناس قال: يا أيها الناس، أشيروا على في الكعبة أنقضها ثم أبني بناءها، أو أصلح ما وهي منها؟ قال ابن عباس: فإني قد فرق لي رأي فيها: أرى أن تصلح ما وهي منها، وتدع بيتا أسلم الناس عليه، وأحجارا أسلم الناس عليها، وبعث عليها النبي صلى الله عليه وسلم ، فقال ابن الزبير: لو كان أحدكم احترق بيته ما رضي حتى يجده، فكيف بيت ربكم؟! إني مستخير ربي ثلاثا ثم عازم على أمري، فلما مضى الثلاث أجمع رأيه على أن ينقضها، فتحاماه الناس، أن ينزل بأول الناس يصعد فيه أمر من السماء! حتى صعده رجل فألقى منه حجارة، فلما لم يره الناس أصابه شيء، تتابعوا فنقضوه حتى بلغوا به الأرض، فجعل ابن الزبير أعمدة فستر عليها الستور حتى ارتفع بناؤه. وقال ابن الزبير: إني سمعت عائشة تقول: إن النبي صلى الله عليه وسلم قال: (فذكر الحديث بالزيادة الأولى ثم قال) : فأنا اليوم أجد ما أنفق ولست أخاف الناس، فزاد فيه خمس أذرع من الحجر حتى أبدى أسا نظر الناس إليه، فبنى عليه البناء وكان طول الكعبة ثماني عشرة ذراعا، فلما زاد فيه استقصره فزاد في طوله عشر أذرع، وجعل له بابين أحدهما يدخل منه، والآخر يخرج منه، فلما قتل ابن الزبير كتب الحجاج إلى عبد الملك بن مروان يخبره بذلك، ويخبره أن ابن الزبير قد وضع البناء على أس نظر إليه العدول من أهل مكة، فكتب إليه عبد الملك: إنا لسنا من __________جزء : 1 /صفحہ : 107__________ تلطيخ ابن الزبير في شيء، أما ما زاد في طوله فأقره وأما ما زاد فيه من الحجر فرده إلى بنائه، وسد الباب الذي فتحه، فنقضه، وأعاده إلى بنائه ". ذلك ما فعله الحجاج الظالم بأمر عبد الملك الخاطئ، وما أظن أنه يبرر له خطأه ندمه فيما بعد. فقد روى مسلم وأبو نعيم أيضا عن عبد الله بن عبيد قال: " وفد الحارث بن عبد الله على عبد الملك بن مروان في خلافته، فقال عبد الملك: ما أظن أبا حبيب (يعني: ابن الزبير) سمع من عائشة ما كان يزعم أنه سمعه منها قال الحارث: بلى أنا سمعته منها، قال: سمعتها تقول ماذا؟ قال: قالت: قال رسول الله صلى الله عليه وسلم : (قلت: فذكر الحديث) قال عبد الملك للحارث: أنت سمعتها تقول هذا؟ قال: نعم، قال: فنكث ساعة بعصاه ثم قال: وددت أني تركته وما تحمل ". وفي رواية لهما عن أبي قزعة: " أن عبد الملك بن مروان بينما هو يطوف بالبيت إذ قال: قاتل الله ابن الزبير حيث يكذب على أم المؤمنين يقول: سمعتها تقول: (فذكر الحديث) . فقال الحارث بن عبد الله بن ربيعة: لا تقل هذا يا أمير المؤمنين، فأنا سمعت أم المؤمنين تحدث هذا، قال: لو كنت سمعته قبل أن أهدمه لتركته على ما بنى ابن الزبير ". أقول: كان عليه أن يتثبت قبل الهدم فيسأل عن ذلك أهل العلم، إن كان يجوز له الطعن في عبد الله بن الزبير، واتهامه بالكذب على رسول الله صلى الله عليه وسلم. وقد تبين لعبد الملك صدقه رضي الله عنه بمتابعة الحارث إياه، كما تابعه جماعة كثيرة عن عائشة رضي الله عنها، وقد جمعت رواياتهم بعضها إلى بعض في هذا الحديث، فالحديث مستفيض عن عائشة، ولذلك فإني أخشى أن يكون عبد الملك على علم سابق بالحديث قبل أن يهدم البيت، ولكنه تظاهر بأنه لم يسمع به إلا من طريق ابن الزبير، فلما جابهه الحارث بن عبد الله بأنه سمعه من عائشة أيضا أظهر الندم على __________جزء : 1 /صفحہ : 108__________ ما فعل، ولات حين مندم. هذا، وقد بلغنا أن هناك فكرة أو مشروعا لتوسيع المطاف حول الكعبة ونقل مقام إبراهيم عليه الصلاة والسلام إلى مكان آخر، فأقترح بهذه المناسبة على المسؤولين أن يبادروا إلى توسيع الكعبة قبل كل شيء وإعادة بنائها على أساس إبراهيم عليه السلام تحقيقا للرغبة النبوية الكريمة المتجلية في هذا الحديث، وإنقاذا للناس من مشاكل الزحام على باب الكعبة الذي يشاهد في كل عام، ومن سيطرة الحارس على الباب الذي يمنع من الدخول من شاء ويسمح لمن شاء، من أجل دريهمات معدودات! ¤