-" لا تسبن احدا ولا تحقرن شيئا من المعروف وان تكلم اخاك وانت منبسط إليه وجهك إن ذلك من المعروف، وارفع إزارك إلى نصف الساق، فإن ابيت فإلى الكعبين وإياك وإسبال الإزار فإنها من المخيلة وإن الله لا يحب المخيلة وإن امرؤ شتمك وعيرك بما يعلم فيك فلا تعيره بما تعلم فيه، فإنما وبال ذلك عليه".-" لا تسبن أحدا ولا تحقرن شيئا من المعروف وأن تكلم أخاك وأنت منبسط إليه وجهك إن ذلك من المعروف، وارفع إزارك إلى نصف الساق، فإن أبيت فإلى الكعبين وإياك وإسبال الإزار فإنها من المخيلة وإن الله لا يحب المخيلة وإن امرؤ شتمك وعيرك بما يعلم فيك فلا تعيره بما تعلم فيه، فإنما وبال ذلك عليه".
سیدنا ابوجری جابر بن سیلم رضی اللہ عنہ کہتے ہیں: میں نے ایک ایسے آدمی کو دیکھا کہ لوگ اس کی رائے کے سامنے سر تسلیم خم کر دیتے تھے، وہ جو کچھ بھی کہتا، وہ اسے تسلیم کر لیتے، میں نے پوچھا: یہ آدمی کون ہے؟ انہوں نے کہا: یہ اللہ کے رسول ہیں۔ میں نے دو دفعہ کہا: اے اللہ کے رسول! «عليك السلام» آپ صلی اللہ علیہ وسلم نے فرمایا: «عليك السلام» مت کہہ، یہ تو مردوں کا سلام ہے، ( زندوں کو سلام دینے کے لیے) «السلام عليك» کہا کر۔ میں نے کہا: کیا آپ اللہ کے رسول ہیں؟ آپ صلی اللہ علیہ وسلم نے فرمایا: ”میں اس اللہ کا رسول ہوں، کہ اگر تجھے کوئی تکلیف لاحق ہو اور تو اسے پکارے تو وہ تیری تکلیف دور کر دے گا، اگر تو قحط سالی میں مبتلا ہو جاتا ہے اور اسے پکارتا ہے تو وہ تیرے لیے زمین سے (انگوریاں) اگائے گا اور اگر تو کسی بے آب و گیاہ اور بیابان جنگل میں ہو اور تیری سواری گم ہو جائے اور پھر تو اس سے دعا کرے تو وہ تیری سواری لوٹا دے گا۔“ میں نے کہا: مجھے کوئی وصیت ہی فرما دیں۔ آپ صلی اللہ علیہ وسلم نے فرمایا: ”کسی کو گالی نہ دینا، کسی نیکی کو حقیر و معمولی مت سمجھنا، اگرچہ وہ اپنے بھائی کے ساتھ خندہ پیشانی کے ساتھ کلام کرنے کی صورت میں ہو، اپنی چادر کو پنڈلی کے نصف تک بلند رکھنا، اگر تو ایسا نہ کرے تو ٹخنوں تک رکھ لینا، ٹخنوں سے نیچے چادر ( اور شلوار وغیرہ) لٹکانے سے بچنا، کیونکہ ایسا کرنا غرور (اور تکبر) ہے اور اللہ تعالیٰ غرور کو پسند نہیں کرتا۔ اگر کوئی آدمی تیرے کسی برے فعل، جسے وہ جانتا ہے، کی وجہ سے تجھے عار دلائے، تو تو اسے اس کے عیب، جسے تو جانتا ہے، کی بنا پر طعنہ نہ دینا، کیونکہ اس چیز کا وبال اس پر ہو گا۔“ ایک روایت میں ان الفاظ کی زیادتی بھی ہے کہ آپ صلی اللہ علیہ وسلم نے فرمایا: ”کسی کو گالی نہ دینا“ تو ابوجری نے کہا: میں نے اس وصیت کے بعد کسی آزاد یا غلام بلکہ اونٹ یا بکری تک کو برا بھلا نہیں کہا۔
हज़रत अबू जुरययी जाबिर बिन सलीम रज़ि अल्लाहु अन्ह कहते हैं कि मैं ने एक ऐसे आदमी को देखा कि लोग उसकी राय को तुरंत मान लेते थे, वह जो कुछ भी केहता, वह उसे स्वीकार कर लेते। मैं ने पूछा कि यह आदमी कौन है ? उन्हों ने कहा यह अल्लाह के रसूल हैं। मैं ने दो दफ़ा कहा ऐ अल्लाह के रसूल “अलेक अस्सलाम” « عليك السلام » आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया ! “अलेक अस्सलाम” « عليك السلام » मत कह, यह तो मरे हुए लोगों का सलाम है, ज़िन्दा लोगों को सलाम करने के लिए “अस्सलामु अलेकुम” « السلام عليكم » कहा कर।” मैं ने कहा कि क्या आप अल्लाह के रसूल हैं ? आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया ! “मैं उस अल्लाह का रसूल हूँ कि यदि तुझे कोई तकलीफ़ पहुंचे और तू उसे पुकारे तो वह दूर कर देगा, यदि तू सूखे में पड़ा हो और उस से दुआ करे तो वह ज़मीन से हरयाली ऊगा देगा और यदि तू किसी बिना पानी और हरयाली और बियाबान जंगल में हो और तेरी सवारी गुम होजाए और तू उसे पुकारे तो वह वापस लोटा देगा।” मैं ने कहा कि मुझे कोई वसीयत ही करदें। आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया ! “किसी को गाली न देना, किसी नेकी को छोटा और मामूली मत समझना, चाहे वह अपने भाई के साथ बड़ी नम्रता के साथ बात करना ही हो, अपनी चादर को आधी पिंडली तक ऊँचा रखना, यदि ऐसा न करे तो टख़नों तक रख लेना, टख़नों से नीचे चादर (और पाजामा आदि) लटकाने से बचना, क्योंकि ऐसा करना घमंड है और अल्लाह तआला घमंड को पसंद नहीं करता। यदि कोई आदमी तेरे किसी बुरे काम के कारण जिसे वह जानता है, तुझे शर्म दिलाए तो तू उसे उसकी उस बुराई के आधार पर ताना मत देना जिसे तू जानता हो, क्योंकि इस चीज़ का बोझ उस पर होगा।” एक रिवायत में इन शब्दों को बढ़ा दिया गया है कि आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया ! “किसी को गाली न देना”, तो अबू जुरययी ने कहा कि मैं ने इस वसीयत के बाद किसी मुक्त या ग़ुलाम बल्कि ऊंट या बकरी तक को बुरा भला नहीं कहा।
سلسله احاديث صحيحه ترقیم البانی: 1109
قال الشيخ الألباني: - " لا تسبن أحدا ولا تحقرن شيئا من المعروف وأن تكلم أخاك وأنت منبسط إليه وجهك إن ذلك من المعروف، وارفع إزارك إلى نصف الساق، فإن أبيت فإلى الكعبين وإياك وإسبال الإزار فإنها من المخيلة وإن الله لا يحب المخيلة وإن امرؤ شتمك وعيرك بما يعلم فيك فلا تعيره بما تعلم فيه، فإنما وبال ذلك عليه ". _____________________ أخرجه أبو داود (2 / 179) والترمذي (2 / 120) والدولابي في " الكنى والأسماء " (ص 66) من طريق أبي غفار حدثنا أبو تميمة الهجيمي عن أبي جري جابر بن سليم قال: رأيت رجلا يصدر الناس عن رأيه لا يقول شيئا. إلا صدورا عنه، قلت: من هذا؟ قالوا: رسول الله صلى الله عليه وسلم ، قلت: عليك السلام يا رسول الله، مرتين، __________جزء : 3 /صفحہ : 99__________ قال: لا تقل عليك السلام، فإن عليك السلام تحية الميت، قل: السلام عليك. قال: قلت: أنت رسول الله؟ قال: أنا رسول الله الذي إذا أصابك ضر ودعوته كشفه عنك وإن أصابك عام سنة فدعوته أنبتها لك وإذا كنت بأرض قفراء أو فلاة فضلت راحلتك فدعوته ردها عليك: قلت: اعهد إلي ، قال: فذكره. وزاد بعد قوله: لا تسبن أحدا: " قال: فما سببت بعده حرا ولا عبدا ولا بعيرا ولا شاة ". ولم يسق الترمذي القصة بتمامها وقال: " حديث حسن صحيح ". قلت: ورجاله رجال البخاري غير أبي غفار واسمه المثنى بن سعيد الطائي وهو ثقة، ورواه ابن حبان في صحيحه والنسائي، كما في الترغيب (3 / 286) . قلت: وكذلك رواه الحاكم (4 / 186) من طريق أخرى عن ابن تميمة، وصححه. ووافقه الذهبي. ورواه أحمد (5 / 64) من طريق خالد الحذاء عن أبي تميمة به مختصرا من قوله: " ادعوا الله وحده " الخ. دون قوله: " وإن امرؤ شتمك " الخ . وقال بدلها " ولو أن تفرغ من دلوك في إناء المستسقي ". وسنده صحيح أيضا كما سبق في " أدعو إلى الله " (421) . وللحديث طريق أخرى أخرجها الدولابي من طريق زياد الجصاص عن محمد بن سيرين قال: حدثنا جابر بن سليم الهجيمي أبو جري قال: قدمت على النبي صلى الله عليه وسلم . الحديث مختصرا. وزياد الجصاص هو زياد بن أبي زياد الجصاص ضعيف. كما في " الخلاصة " و " التقريب ". وله طريق ثالث بسند صحيح أيضا يأتي برقم (1352) بلفظ: (لا تحقرن من المعروف شيئا) . الحديث. ورواه ابن نصر (221 / 2) عن أبي السليل عن أبي تميمة. والجملة الأخيرة منه " وإن امرؤ شتمك " لها شاهد من حديث ابن عمر مرفوعا بلفظ: " إذا سبك رجل بما يعلم منك، فلا تسبه بما تعلم منه، فيكون أجر ذلك لك ووباله عليه ". رواه ابن منيع عنه كما في " الجامع " وقال شارحه المناوي: __________جزء : 3 /صفحہ : 100__________ " رمز لحسنه وهو كما قال، أو أعلى، إذ ليس في رواته مجروح ". واللفظ المشار إليه الآتي فيه هذه الجملة أيضا وهو أقرب إلى رواية ابن عمر هذه. ¤