- (كذلك سوقك بالقوارير، يعني النساء. قاله - صلى الله عليه وسلم - في حجة الوداع).- (كذلك سَوْقُكَ بالقوارير، يعني النساء. قاله - صلى الله عليه وسلم - في حجة الوداع).
سیدہ صفیہ بنت حیی رضی اللہ عنہا سے مروی ہے کہ نبی کریم صلی اللہ علیہ وسلم نے اپنی بیویوں کے ساتھ حج کیا، دوران سفر ایک آدمی اترا، اور امہات المؤمنین کی سواریوں کو تیزی سے چلایا۔ نبی کریم صلی اللہ علیہ وسلم نے فرمایا: ”اس طرح شیشوں کو لے کر چلتے ہیں؟“ سو وہ چل رہے تھے کہ سیدہ صفیہ بنت حی کا اونٹ بیٹھ گیا، حالانکہ ان کی سواری سب سے اچھی تھی، وہ رونے لگ گئیں۔ جب آپ صلی اللہ علیہ وسلم کو پتہ چلا تو آپ تشریف لائے اور اپنے ہاتھ سے ان کے آنسو پونچھنے لگ گئے، وہ اور زیادہ رونے لگیں اور آپ صلی اللہ علیہ وسلم ان کو منع کرتے رہے۔ جب وہ بہت زیادہ رونے لگ گئیں تو آپ صلی اللہ علیہ وسلم نے ان کو ڈانٹ ڈپٹ کی اور لوگوں کو اترنے کا حکم دے دیا، سو وہ اتر گئے، اگرچہ آپ صلی اللہ علیہ وسلم کا اترنے کا ارادہ نہیں تھا۔ وہ کہتی ہیں: صحابہ کرام اتر پڑے اور اس دن میری باری تھی۔ جب صحابہ اترے تو نبی کریم صلی اللہ علیہ وسلم کا خیمہ نصب کیا گیا، آپ اس میں داخل ہو گئے۔ وہ کہتی ہیں: یہ بات میری سمجھ میں نہ آ سکی کہ میں کیسے آپ صلی اللہ علیہ وسلم کے پاس گھس جاؤں اور مجھے یہ ڈر بھی تھا کہ (ممکن ہے کہ) آپ کے دل میں میرے بارے میں کوئی ناراضگی ہو۔ وہ کہتی ہیں: (بہرحال) میں سیدہ عائشہ کے پاس گئی اور ان سے کہا: تم جانتی ہو کہ میں کسی چیز کے عوض اپنے دن کا سودا نہیں کروں گی، لیکن میں تجھے اپنی باری کا دن اس شرط پر ہبہ کرتی ہوں کہ تم رسول اللہ صلی اللہ علیہ وسلم کو مجھ سے راضی کروا دو۔ انہوں نے کہا: ٹھیک ہے۔ اب وہ کہتی ہیں: سیدہ عائشہ رضی اللہ عنہا نے زعفران میں رنگی ہوئی چادر لی اور اس پر پانی چھڑکا تاکہ اس کی خوشبو تروتازہ ہو جائے، پھر اپنے کپڑے زیب تن کیے، پھر رسول اللہ صلی اللہ علیہ وسلم کی طرف چلی گئی اور (جا کر) خیمے کا ایک کنارہ اٹھایا۔ آپ صلی اللہ علیہ وسلم نے پوچھا: ”اے عائشہ! تجھے کیا ہوا؟ یہ دن تیرا تو نہیں ہے۔ انہوں نے کہا: یہ اللہ کا فضل ہے، وہ جسے چاہتا ہے، عطا کرتا ہے۔ آپ اپنی اہلیہ کے پاس ہی ٹھہرے رہے۔ جب شام ہوئی تو آپ صلی اللہ علیہ وسلم نے سیدہ زینب بنت جحش سے فرمایا: ”اے زینب! اپنی بہن صفیہ کو ایک اونٹ مستعار دے دو۔“ دراصل ان کے پاس سواریاں زیادہ تھیں۔ لیکن زینب نے کہا: کیا میں آپ کی یہودیہ کو مستعار دے دوں؟ یہ بات سن کر آپ صلی اللہ علیہ وسلم اس سے ناراض ہو گئے اور قطع کلامی کر لی اور اس سے کوئی بات نہ کی، حتی کہ مکہ پہنچ گئے، پھر آپ کے سفر میں منیٰ والے دن (بھی بیت گئے) یہاں تک کہ آپ صلی اللہ علیہ وسلم مدینہ واپس آ گئے اور محرم اور صفر کے (دو ماہ) بھی گزر گئے، لیکن آپ صلی اللہ علیہ وسلم نہ زینب کے پاس گئے اور نہ اس کے لیے کوئی باری تقسیم کی۔ وہ بھی آپ سے ناامید ہو گئیں۔ جب ربیع الاول کا مہینہ آیا تو آپ اس کے پاس گئے۔ زینب نے آپ کا سایہ دیکھا اور کہا: یہ تو رسول اللہ صلی اللہ علیہ وسلم کا سایہ ہے اور آپ تو میرے پاس آتے ہی نہیں، سو یہ (سائے والا) کون ہو سکتا ہے؟ نبی کریم صلی اللہ علیہ وسلم ان کے پاس داخل ہوئے، جب زینب نے آپ کو دیکھا تو کہا: اے اللہ کے رسول! آپ کے آنے سے (مجھے اتنی خوشی ہوئی ہے) کہ مجھے سمجھ نہیں آتی میں کیا کروں۔ وہ کہتی ہیں: ان کی ایک لونڈی تھی، جس کو وہ نبی کریم صلی اللہ علیہ وسلم سے چھپا کر رکھتی تھیں۔ پھر اس نے کہا: فلاں لونڈی آپ کے لیے ہے۔ پھر نبی کریم صلی اللہ علیہ وسلم سیدہ زینب کی چارپائی کی طرف گئے، جسے اٹھا دیا گیا تھا، آپ نے اس کو اپنے ہاتھ سے بچھایا، پھر اپنی اہلیہ سے مباشرت کی اور ان سے راضی ہوئے۔
हज़रत सफ़ियह बिन्त हई रज़ि अल्लाहु अन्हा से रिवायत है कि नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने अपनी पत्नियों के साथ हज्ज किया, आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम कहीं रास्ते में थे कि एक आदमी उतरा, और औरतों की सवारियों को तेज़ तेज़ चलाने लगा। नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया ! “इस तरह औरतों को लेकर चलते हैं ?” तो वह चल रहे थे कि हज़रत सफ़ियह बिन्त हई रज़ि अल्लाहु अन्हा का ऊंट बैठ गया हालांकि उन की सवारी सब से अच्छी थी, वह रोने लगीं। जब आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को पता चला तो आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम आए और अपने हाथ से उन के आंसू पोंछने लगे, वह और अधिक रोने लगीं और आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम उन को मना करते रहे। जब वह बहुत ज़्यादा रोने लगीं तो आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने उन को डांट-डपट की और लोगों को उतरने का हुक्म दे दिया तो वे उतर गए जबकि आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का उतरने का इरादा नहीं था। वह कहती हैं कि सहाबा इकराम उतर पड़े और उस दिन मेरी बारी थी। जब सहाबा उतरे तो नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का तम्बू लगाया गया, आप उस में अंदर चले गए। वह कहती हैं कि यह बात मेरी समझ में न आ सकी कि मैं कैसे आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के पास अंदर जाऊँ और मुझे यह डर भी था कि संभव है कि आप के दिल में मेरे बारे में कोई नाराज़गी हो। वह कहती हैं कि मैं हज़रत आयशा रज़ि अल्लाहु अन्हा के पास गई और इन से कहा कि तुम जानती हो कि मैं किसी चीज़ के बदले में अपने दिन का सौदा नहीं करूँगी लेकिन मैं तुम को अपनी बारी का दिन इस शर्त पर भेंट करती हूँ कि तुम रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को मुझ से ख़ुश करवा दो, उन्हों ने कहा कि ठीक है। अब वह कहती हैं कि हज़रत आयशा रज़ि अल्लाहु अन्हा ने ज़ाअफ़रान में रंगी हुई चादर ली और उस पर पानी छिड़का ताकि उस की ख़ुश्बू तर-ओ-ताज़ा हो जाए फिर अपने कपड़े बदले फिर रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की ओर चली गईं और (जाकर) तम्बू का एक किनारा उठाया। आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने पूछा ! “ऐ आयशा तुझे किया हुआ ? यह दिन तेरा तो नहीं है।” उन्हों ने कहा कि यह अल्लाह का फ़ज़ल है, वह जिसे चाहता है दिया करता है। आप अपनी पत्नी के पास ही ठहरे रहे। जब शाम हुई तो आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने हज़रत ज़ैनब बिन्त जहश रज़ि अल्लाहु अन्हा से फ़रमाया ! “ऐ ज़ैनब अपनी बहन सफ़ियह को एक ऊंट अस्थायी रूप में देदो।” क्यूंकि उन के पास सवारियां अधिक थीं, ज़ैनब ने कहा क्या मैं आप की यहूदिया को अस्थायी रूप में देदूँ ? यह बात सुन कर आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम उन से नाराज़ होगए और उन से बोलना छोड़ दिया और उन से कोई बात न की यहां तक कि मक्का पहुंच गए फिर मिना वाले दिन (बीत गए) यहाँ तक कि आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम मदीना वापस आगए और मुहर्रम और सफ़र के (दो महीने) भी बीत गए लेकिन आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम न ज़ैनब के पास गए और न ही उस के लिये कोई बारी तय की। वह भी आप से निराश हो गई। जब रबीअ अल-अव्वल का महीना था तो आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम उस के पास गए। ज़ैनब ने आप की छाया देखी और कहा यह तो रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की छाया है और आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम तो मेरे पास आते ही नहीं तो यह (छाया वाला) कौन हो सकता है ? नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम अंदर गए, जब ज़ैनब ने आप को देखा तो कहा ऐ अल्लाह के रसूल आप के आने से (मुझे इतनी ख़ुशी हुई है) कि मुझे समझ नहीं आ रहा कि मैं क्या करूँ। वह कहती हैं कि उन की एक लौंडी थी जिस को वह नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से छुपा कर रखती थीं फिर उन्हों ने कहा कि फ़ुलां लौंडी आप के लिये है फिर नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम हज़रत ज़ैनब की चारपाई की ओर गए जिसे उठा लिया गया था, आप ने उस को अपने हाथ से बिछाया फिर अपनी पत्नी से संभोग किया और उन से ख़ुश हुए।
سلسله احاديث صحيحه ترقیم البانی: 3205
قال الشيخ الألباني: - (كذلك سَوْقُكَ بالقوارير، يعني النساء. قاله - صلى الله عليه وسلم - في حجة الوداع) . _____________________ أخرجه أحمد (6/337- 338) : حدثنا عبد الرزاق قال: ثنا جعفر بن __________جزء : 7 /صفحہ : 620__________ سليمان عن ثابت قال: حدثتني شميسة- أو سمية؛ قال عبد الرزاق: هو في كتابي سمينة- عن صفية بنت حُيَيٍّ: أن النبي - صلى الله عليه وسلم - حج بنسائه، فلما كان في بعض الطريق؛ نزل رجل فساق بهن فأسرع، فقال النبي - صلى الله عليه وسلم -: ... فذكره، فبينما هم يسيرون؛ بَرَكَ بصفية بنت حيي جملُها، وكانت من أحسنهن ظهراً، فبكت، وجاء رسول الله - صلى الله عليه وسلم - حين أُخبر بذلك، فجعل يمسح دموعها بيده، وجعلت تزداد بكاء وهو ينهاها، فلما أكثرت زَبَرَها وانتهرها، وأمر الناس بالنزول فنزلوا، ولم يكن يريد أن ينزل، قالت: فنزلوا، وكان يومي، فلما نزلوا ضرب خباء النبي - صلى الله عليه وسلم - ودخل فيه، قالت: فلم أدرِ عَلامَ أهجم من رسول الله - صلى الله عليه وسلم -، وخشيت أن يكون في نفسه شيء مني! قالت: فانطلقت إلى عائشة فقلت لها: تعلمين أني لم أكن أبيع يومي من رسول الله - صلى الله عليه وسلم - بشيء أبداً، وإني قد وهبت يومي لك على أن تُرْضِي رسول الله - صلى الله عليه وسلم - عني! قالت: نعم، قالت: فأخذت عائشة خماراً لها قد ثردته بزعفران، فرشته بالماء ليذكى ريحه، ثم لبست ثيابها، ثم انطلقت إلى رسول الله - صلى الله عليه وسلم -، فرفعت طرف الخباء، فقال لها: "ما لك يا عائشة؟! إن هذا ليس بيومك ". قالت: ذلك فضل الله يؤتيه من يشاء، فقال مع أهله. فلما كان عند الرواح؛ قال لزينب بنت جحش: "يا زينب! أفقري أختك صفية جملاً". وكانت من أكثرهن ظهراً، فقالت: أنا أفقر يهوديتك! فغضب النبي - صلى الله عليه وسلم - حين سمع ذلك منها، فهجرها فلم يكلمها حتى قدم مكة وأيام منى في سفره، حتى رجع إلى المدينة؛ والمحرم وصفر، فلم يأتها، ولم يَقْسِم لها، ويئست منه. __________جزء : 7 /صفحہ : 621__________ فلما كان شهر ربيع الأول؛ دخل عليها، فرأت ظلَّه، فقالت: إن هذا لظل رسول الله - صلى الله عليه وسلم -، وما يدخل علي النبي - صلى الله عليه وسلم -، فمن هذا؟! فدخل النبي - صلى الله عليه وسلم -، فلما رأته قالت: يا رسول الله! ما أدري ما أصنع حين دخلت علي؟! قالت: وكانت لها جارية، وكانت تخبِّئُها من النبي - صلى الله عليه وسلم -، فقالت: فلانة لك، فمشى النبي - صلى الله عليه وسلم - إلى سرير زينب، وكان قد رُفع، فوضعه بيده، ثم أصاب أهله، ورضي عنهم. ثم قال أحمد عقب هذا الحديث- وفي "مسند عائشة (6/131- 132) -: ثنا عفان: ثنا حماد- يعني: ابن سلمة- قال: ثنا ثابت عن شميسة عن عائشة: أن رسول الله - صلى الله عليه وسلم - كان في سفر له، فاعتلَّ بعير لصفية، وفي إبل زينب فضل، فقال لها رسول الله - صلى الله عليه وسلم -: "إن بعيراً لصفية اعتل، فلو أعطيتِها بعيراً من إبلك ". فقالت: أنا أعطي تلك اليهودية؟! قال: فتركها رسول الله - صلى الله عليه وسلم - ذا الحجة والمحرم شهرين أو ثلاثة لا يأتيها، قالت: حتى يئستُ منه، وحَوُّلْتُ سريري. قالت: فبينما أنا يوماً بنصف النهار؛ إذا أنا بظل رسول الله - صلى الله عليه وسلم - مُقْبِل. قال عفان: حدثنيه حماد عن شميسة عن النبي - صلى الله عليه وسلم -، ثم سمعته بعد يحدثه عن شميسة عن عائشة عن النبي - صلى الله عليه وسلم -، وقال بعد: في حج أو عمرة، ولا أظنه إلا قال: في حجة الوداع. وأخرجه الطبراني في" المعجم الأوسط " (1/145/2/ 2770) - بتمامه نحوه-، __________جزء : 7 /صفحہ : 622__________ والنسائي، وابن ماجه، وأبو داود- بعضه-، وهو مخرج في "الإرواء" (7/85) ، وسقط تخريجه من مطبوعته، فيستدرك من هنا. وقد قلت هناك: "ورجاله ثقات رجال مسلم؛ غير سمية هذه، وهي مقبولة عند الحافظ ابن حجر". وأزيد هنا فأقول: وذكرها الذهبي في آخر "الميزان " في فصل "النسوة المجهولات "، وقال في أوله: "وما علمت في النساء من اتُّهِِمَتْ، ولا من تركوها". وقال الهيثمي في حديث عائشة (4/323) : "رواه الطبراني في "الأوسط "، وفيه سمية، روى لها أبو داود وغيره، ولم يجرِّحها أحد، وبقية رجاله ثقات "! كذا قال! وفاته عزوه لأحمد، وفي روايته لحديث صفية ملاحظتان: إحداهما: موافقة ما في كتاب عبد الرزاق لما في رواية أحمد وغيره لحديث عائشة أن الراوي عن صفية، وعن عائشة هي "سمية"، لكن وقع في مطبوعة عبد الرزاق: "سمينة " بزيادة النون بين الياء والهاء! وأظنها خطأ مطبعياً. والأخرى: أن في حفظ عبد الرزاق أن اسم الراوي "شميسة " تصغير "الشمس "، وهذا موافق لما رواه البخاري في "الأدب المفرد" (47/142) من طريق شعبة عن شميسة العتكية قال: ذُكِرَ أدب اليتيم عند عائشة- رضي الله عنها-، فقالت: __________جزء : 7 /صفحہ : 623__________ إني لأضرب اليتيم حتى ينبسط. ورجاله ثقات رجال الشيخين؛ غير شميسة هذه؛ فقد أوردها المزي في " التهذ يب "، وقال: "روى عنها شعبة بن الحجاج وهشام بن حسان ". ثم ساق له هذا الأثر، ولم يحكِ فيها جرحاً ولا تعديلاً، وتبعه الحافظ، وهذه غريبة منهما! نتجت من غريبة أخرى، وهي أن ابن أبي حاتم أوردها في "الجرح والتعديل " (2/ 1/ 391) ؛ فوقع فيه على أنها رجل؛ ففيه: "شميسة روى عنه شعبة". ثم روى بسنده عن عثمان بن سعيد قال: سأ لت يحيى بن معين؛ قلت: شمسية؟ قال: "ثقة". وعلق عليه محققه الفاضل بقوله: "شميسة امرأة، فالصواب: "روى عنها".. ولم يذكر المزي ولا ابن حجر توثيق ابن معين لها، كأنهما لم يعثرا على ذكر المؤلف لها في أسماء الرجال؛ وقد وقع له مثل هذا في "دقرة" كما تقدم في باب الدال ". وأفاد هناك (2/1/444) أن قوله: "روى عنه " خطأ من تصرف من بعد المؤلف؛ فإنه قد يذكر نادراً بين تراجم الرجال بعض النسوة كما في آخر باب الذال: "ذرة، روت عن عائشة ... ". وإن مما يؤيد الخطأ المذكور: أن يزيد بن الهيثم قد روى- في جزء "من كلام أبي زكريا يحيى بن معين في الرجال "، تحقيق الدكتور أحمد محمد نور سيف- __________جزء : 7 /صفحہ : 624__________ مثلما روى عثمان بن سعيد عنه، فقال (105/333) : "قيل له: فشميسة؟ قال: ثقة، روى عنها شعبة، وابن أبي حازم والدراوردي، ليس بها بأس ". قلت: وهذه فائدة هامة تضم إلى ترجمة شميسة في "تهذيب المزي " وفروعه، وقد ذكر عبد الله بن أحمد شميسة هذه فيمن رأى شعبة من الرواة في كتابه "العلل " (1/162) ، ثم قال (1/267 و 2/245) : حدثني أبي قال: حدثنا عبيد الله بن ثور قال: حدثتني أمي قالت: رأيت شميسة بنت عزيز بن غافر (¬1) الوسقية- قال عبيد الله: بطن منا، يعني العتيك- عليها خلخالان، وهي عجوز كبيرة. قلت: والظاهر أنها التي في "تاريخ واسط " لبحشل، قال (109/88) : حدثنا محمد بن إسماعيل قال: ثنا عفان قال: ثنا شعبة قال: قالت لي أمي: ههنا امرأة تحدث عن عائشة- رضي الله عنها-؛ اذهب فاسمع منها، قال: فذهبت فسمعت منها، فقلت: قد ذهبت، قالت: سلمك الله. قال أبو الحسن (هو بحشل المؤلف) : "هذه المرأة يقال لها: شمسية (كذا) أم سلمة". وهذه فائدة أخرى تفرد بها (بحشل) أن كنيتها أم سلمة، وهو مما يستدرك على الحافظ الذهبي في "المقتنى في سرد الكنى". وقوله: "شمسية" أظنه محرفاً من "شميسة"، والله تعالى أعلم. وجملة القول: أن "شميسة" هذه ثقة، بخلاف سمية، فهي مجهولة، ¬ __________ (¬1) كذا بالغين المعجمة في الموضعين منه، وفي"الإكمال" (7/6) ، و"تهذيب الكمال": "عاقر"؛وهو الصواب كما في "التبصير" __________جزء : 7 /صفحہ : 625__________ وكلاهما تابعية بصرية تروي عن عائشة، فإن كانتا واحدة فالحديث صحيح، ولا سيما وجملة القوارير منه صحيحة؛ لأن لها شاهداً من حديث أنس- رضي الله عنه-، فقال أحمد (3/206) : ثنا روح: ثنا زُرارة بن أبي الحلال العتكي قال: سمعت أنس بن مالك يحدث أن رسول الله - صلى الله عليه وسلم - قال: "يا أنجشة! كذاك سيرك بالقوارير". قلت: وسنده ثلاثي صحيح متصل بالسماع؛ روح- وهو ابن عبادة- ثقة من رجال الشيخين، وزرارة وئقه ابن حبان وابن خُلفون، وروى عنه جمع آخر من الثقات، كما في "التعجيل ": وتابعه حميد عند الحارث- كما في "الفتح " (10/544) -، وذكر أن قوله: " كذاك " معناه: كفاك. وله طرق أخرى عن أنس بمعناه في "الصحيحين " وغيرهما، وقد خرجت بعضها في "السلسلة الأخرى" تحت الحديث (6059) . (تنبيه) : تقدم عند الكلام في ترجمة "شميسة العتكية" نقلاً عن "الجرح والتعديل " أن الذي وثقها إنما هو ابن معين، وهو الموافق لما في "جزء يزيد بن الهيثم " كما تقدم، فقول الشيخ الجيلاني في "شرح الأدب المفرد" (1/236) : "وثقها ابن عدي (كتاب الجرح والتعديل. النسخة الخطية المملوكة لدائرة المعارف بحيدر أباد الدكن) "! قوله: "ابن عدي " تحريف "ابن معين "، لا أدري أهو من النسخة، أم من الناقل عنها، أم الطابع؟ وأياً ما كان فهو خطأ بلا شك لما تقدم، ولأن ابن أبي حاتم __________جزء : 7 /صفحہ : 626__________ لا يروي عن ابن عدي شيئاً؛ فإن بين وفاتيهما (38) سنة، توفي الأول سنة (327) ، وا لآخره سنة (365) . ¤