سلسله احاديث صحيحه کل احادیث 4035 :ترقیم البانی
سلسله احاديث صحيحه کل احادیث 4103 :حدیث نمبر

سلسله احاديث صحيحه
सिलसिला अहादीस सहीहा
خرید و فروخت، کمائی اور زہد کا بیان
ख़रीदना, बेचना, कमाई और परहेज़गारी
767. اگر چوری والا مال چور کے علاوہ کسی دوسرے شخص کے پاس مل جائے تو
“ यदि चोरी किया गया माल चोर के बदले किसी दूसरे के पास मिल जाए ”
حدیث نمبر: 1127
Save to word مکررات اعراب Hindi
-" إذا كان الذي ابتاعها (يعني السرقة) من الذي سرقها غير متهم يخير سيدها، فإن شاء اخذ الذي سرق منه بثمنها وإن شاء اتبع سارقه".-" إذا كان الذي ابتاعها (يعني السرقة) من الذي سرقها غير متهم يخير سيدها، فإن شاء أخذ الذي سرق منه بثمنها وإن شاء اتبع سارقه".
عکرمہ بن خالد سے روایت ہے کہ اسید بن حضیر نے اپنے بارے میں اسے بتلایا کہ وہ یمامہ کا گورنر تھا، وہ کہتے ہیں: مروان نے میری طرف خط لکھا کہ سیدنا معاویہ رضی اللہ عنہ نے اسے لکھا ہے کہ جس آدمی کا کوئی مال چوری ہو جائے تو وہ جہاں اس مال کو پا لے، وہی اس کا زیادہ حقدار ہے۔ پھر یہی بات مروان نے مجھے لکھ کر بھیج دی۔ لیکن میں نے مروان کو لکھا کہ اس کے بارے میں نبی کریم صلی اللہ علیہ وسلم نے تو یہ فیصلہ کیا تھا: اگر چوری کا مال خریدنے والا تہمت زدہ اور (الزام زدہ) نہ ہو تو اصل مالک کو دو چیزوں کا اختیار دیا جائے گا: اگر وہ چاہے تو وہ مال قیمت کے عوض خرید لے اور اگر چاہے تو چور کا پیچھا کرے۔ پھر سیدنا ابوبکر، سیدنا عمر اور سیدنا عثمان رضی اللہ عنہا نے بھی یہی فیصلہ کیا۔ مروان نے میرا یہ خط سیدنا معاویہ رضی اللہ عنہ کو ارسال کر دیا، جواباً سیدنا معاویہ رضی اللہ عنہ نے مروان کو لکھا: مروان! تم اور اسید مجھ پر فیصلہ نہیں کر سکتے، بلکہ ان امور میں میں تم پر فیصلہ کروں گا۔ (آئندہ) میں جو حکم دوں، اس کو نافذ کر دیا کرو۔ مروان نے معاویہ رضی اللہ عنہ کا یہ خط میری (اسید) طرف بھیجا، لیکن میں نے کہا: جب تک میں گورنر رہا، معاویہ کے قول پر عمل نہیں کروں گا۔
अकरमा बिन ख़ालिद से रिवायत है कि उसेद बिन हुज़ैर ने अपने बारे में उसे बतलाया कि वह यमामह का गर्वनर था, वह कहते हैं कि मरवान ने मेरी ओर पत्र लिखा कि हज़रत मुआव्या रज़ि अल्लाहु अन्ह ने उसे लिखा है कि जिस आदमी का कोई माल चोरी हो जाए तो वह जहां उस माल को पा ले, वही उस का अधिक हक़दार है। फिर यही बात मरवान ने मुझे लिख कर भेज दी। लेकिन मैं ने मरवान को लिखा कि इस के बारे में नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने तो यह फ़ैसला किया था। यदि चोरी का माल ख़रीदने वाले पर कोई आरोप न हो तो असल मालिक को दो चीज़ों का विकल्प दिया जाएगा। यदि वह चाहे तो वह माल दरों के बदले में ख़रीद ले और अगर चाहे तो चोर का पीछा करे।” फिर हज़रत अबु बक्र, हज़रत उमर और हज़रत उस्मान रज़ि अल्लाहु अन्हुम ने भी यही फ़ैसला किया। मरवान ने मेरा यह पत्र हज़रत मुआव्या रज़ि अल्लाहु अन्ह को भेज दिया, जवाब में हज़रत मुआव्या रज़ि अल्लाहु अन्ह ने मरवान को लिखा कि मरवान तुम और उसेद मुझ पर फ़ैसला नहीं कर सकते, बल्कि इन मआमलों में मैं तुम पर फ़ैसला करूँगा। (आगे से) मैं जो हुक्म दूँ, उस को लागू कर दिया करो। मरवान ने मुआव्या रज़ि अल्लाहु अन्ह का यह पत्र मेरी (उसेद) की ओर भेजा, लेकिन मैं ने कहा जब तक में गर्वनर रहा, मुआव्या के कहने पर अमल नहीं करूँगा।
سلسله احاديث صحيحه ترقیم البانی: 609

قال الشيخ الألباني:
- " إذا كان الذي ابتاعها (يعني السرقة) من الذي سرقها غير متهم يخير سيدها، فإن شاء أخذ الذي سرق منه بثمنها وإن شاء اتبع سارقه ".
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‏‏‏‏أخرجه النسائي (2 / 233) والحاكم (2 / 36) وأحمد (4 / 226) عن ابن جريج
‏‏‏‏قال: ولقد أخبرني عكرمة بن خالد أن أسيد بن حضير الأنصاري - ثم أحد بني
‏‏‏‏حارثة - أخبره: " أنه كان عاملا على اليمامة، وأن مروان كتب إليه أن معاوية
‏‏‏‏كتب إليه أن أيما رجل سرق منه فهو أحق بها حيث وجدها، ثم كتب بذلك مروان إلي
‏‏‏‏وكتبت إلى مروان أن النبي صلى الله عليه وسلم قضى بأنه إذا كان ... ثم قضى
‏‏‏‏بذلك أبو بكر وعمر وعثمان. فبعث مروان بكتابي إلى معاوية وكتب معاوية إلى
‏‏‏‏مروان: إنك لست أنت ولا أسيد تقضيان علي، ولكني أقضي فيما وليت عليكما،
‏‏‏‏فانفذ لما أمرتك به، فبعث مروان بكتاب معاوية، فقلت: لا أقضي به ما وليت بما
‏‏‏‏قال معاوية ". وقال الحاكم: " صحيح على شرط الشيخين ". وتعقبه الذهبي
‏‏‏‏بقوله: " قلت: أسيد هذا مات زمن عمر، ولم يلقه عكرمة ولا بقي إلى أيام
‏‏‏‏معاوية، فتحقق هذا ".
‏‏‏‏قلت: التحقيق أن قوله: " ابن حضير " وهم من بعض رواته والصواب " ابن ظهير "
‏‏‏‏. قال الحافظ المزي في ترجمة ابن حضير بعد أن ساق الحديث من طريق هارون بن عبد
‏‏‏‏الله عن حماد بن مسعدة عن ابن جريج: " فإنه وهم. قال هارون: قال أحمد: هو
‏‏‏‏في كتاب ابن جريج " أسيد بن ظهير، ولكن كذا حدثهم بالبصرة. ورواه عبد
‏‏‏‏الرزاق وغيره عن ابن جريج عن عكرمة عن أسيد بن ظهير، وهو الصواب ".
‏‏‏‏أقول: رواية عبد الرزاق عند النسائي قال: أخبرنا عمرو بن منصور قال: حدثنا
‏‏‏‏سعيد بن ذؤيب قال: حدثنا عبد الرزاق عن ابن جريج: ولقد أخبرني ... إلى آخر
‏‏‏‏السياق المذكور في مطلع التخريج. وأنت ترى أنه وقع فيه " أسيد بن حضير ".
‏‏‏‏وهذا خلاف ما عزاه المزي لرواية عبد الرزاق، فهل روايته في " النسائي "
‏‏‏‏مخالفة لروايته عند
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‏‏‏‏غيره ممن نقلها المزي عنه؟ أم أن نسختنا منه وقع فيها خطأ
‏‏‏‏من الطابع أو الناسخ؟ كل من الأمرين محتمل في الظاهر ولكن مما يرجح الاحتمال
‏‏‏‏الثاني: أن الحافظ المزي أورد الحديث في " تحفة الأشراف لمعرفة الأطراف "
‏‏‏‏(1 / 75) وتبعه النابلسي في " الذخائر " (1 / 17) من طريق النسائي عن عمرو
‏‏‏‏بن منصور به ... فذكره كما ذكره في " التهذيب " على الصواب.
‏‏‏‏وقال عقبه: " وكذا رواه إسحاق بن راهويه عن عبد الرزاق وقيل عن أسيد بن
‏‏‏‏حضير وهو وهم ". فتبين أن الذي في نسختنا من " النسائي " خطأ من الناسخ أو
‏‏‏‏الطابع. وإذا كان الأمر كذلك: فابن ظهير صحابي وقد استصغر يوم أحد وروى
‏‏‏‏عنه غير عكرمة ابنه رافع ومجاهد. فثبت الحديث وزال الوهم. والموفق الله.
‏‏‏‏وفي الحديث فائدتان هامتان:
‏‏‏‏الأولى: أن من وجد ماله المسروق عند رجل غير متهم اشتراها من الغاصب أو السارق
‏‏‏‏، فليس له أن يأخذه إلا بالثمن وإن شاء لاحق المعتدي عند الحاكم. وأما حديث
‏‏‏‏سمرة المخالف لهذا بلفظ: " من وجد عين ماله عند رجل فهو أحق به، ويتبع البيع
‏‏‏‏من باعه " فهو حديث معلول كما بينته في التعليق على " المشكاة " (2949) فلا
‏‏‏‏يصلح لمعارضة هذا الحديث الصحيح، لاسيما وقد قضى به الخلفاء الراشدون.
‏‏‏‏والأخرى: أن القاضي لا يجب عليه في القضاء أن يتبنى رأى الخليفة إذا ظهر له
‏‏‏‏أنه مخالف للسنة، ألا ترى إلى أسيد بن ظهير كيف امتنع عن الحكم بما أمر به
‏‏‏‏معاوية وقال: " لا أقضي ما وليت بما قال معاوية ".
‏‏‏‏ففيه رد صريح على من يذهب اليوم من الأحزاب الإسلامية إلى وجوب طاعة الخليفة
‏‏‏‏الصالح فيما تبناه من أحكام ولو خالف النص في وجهة نظر المأمور وزعمهم أن
‏‏‏‏العمل جرى على ذلك من المسلمين الأولين وهو زعم باطل لا سبيل لهم إلى إثباته،
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‏‏‏‏
‏‏‏‏كيف وهو منقوض بعشرات النصوص هذا واحد منها، ومنها مخالفة علي رضي الله عنه
‏‏‏‏في متعة الحج لعثمان بن عفان في خلافته، فلم يطعه، بل خالفه مخالفة صريحة كما
‏‏‏‏في " صحيح مسلم " (4 / 46) عن سعيد بن المسيب قال: " اجتمع علي وعثمان رضي
‏‏‏‏الله عنهما بعسفان، فكان عثمان ينهى عن المتعة أو العمرة، فقال علي: ما تريد
‏‏‏‏إلى أمر فعله رسول الله صلى الله عليه وسلم تنهى عنه؟ ! فقال عثمان: دعنا منك
‏‏‏‏! فقال: إني لا أستطيع أن أدعك. فلما أن رأى علي ذلك أهل بهما جميعا ". ¤


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