-" تبايعوني على السمع والطاعة في النشاط والكسل والنفقة في العسر واليسر وعلى الامر بالمعروف والنهي عن المنكر وان تقولوا في الله لا تخافون في الله لومة لائم وعلى ان تنصروني فتمنعوني إذا قدمت عليكم مما تمنعون منه انفسكم وازواجكم وابناءكم ولكم الجنة".-" تبايعوني على السمع والطاعة في النشاط والكسل والنفقة في العسر واليسر وعلى الأمر بالمعروف والنهي عن المنكر وأن تقولوا في الله لا تخافون في الله لومة لائم وعلى أن تنصروني فتمنعوني إذا قدمت عليكم مما تمنعون منه أنفسكم وأزواجكم وأبناءكم ولكم الجنة".
سیدنا جابر رضی اللہ عنہ کہتے ہیں: رسول اللہ صلی اللہ علیہ وسلم مکہ میں دس سال تک ٹھہرے رہے، عکاظ، مجنہ اور حج کے موسم میں منیٰ جا کر لوگوں کو کہتے: ”کون ہے جو مجھے پناہ دے، کون ہے جو میری مدد کرے، تاکہ میں لوگوں تک اپنے رب کا پیغام پہنچا سکوں اور اسے جنت مل سکے؟“ جب یمن یا مضر کا کوئی باشندہ مکہ میں آتا تو آپ صلی اللہ علیہ وسلم کی قوم اسے ملتی اور کہتی کہ قریش کے فلاں آدمی (محمد صلی اللہ علیہ وسلم ٰ) سے بچ کر رہنا، کہیں وہ تجھے بھٹکا نہ دے، آپ ان کے گھروں میں چل رہے ہوتے تھے، وہ آپ کی طرف اشارے کر کے آپ کا تعین کرتے تھے یہاں تک کہ اللہ تعالیٰ نے ہمیں یثرب (مدینہ) سے آپ کی طرف بھیجا ہم نے آپ کو جگہ دی اور آپ کی تصدیق کی ہمارا آدمی آپ کے پاس پہنچتا۔ آپ پر ایمان لاتا۔ آپ اسے قرآن مجید پڑھاتے، پھر وہ اپنے گھر لوٹ آتا اور لوگ اس کے ذریعے دائرہ اسلام میں داخل ہوتے، یہاں تک کہ انصاریوں کے ہر محلے میں مسلمانوں کی ایک معقول تعداد بن گئی۔ ایک دن ان سب (انصاریوں) نے مشورہ کیا اور کہا: کہ ہم کب تک رسول اللہ صلی اللہ علیہ وسلم کو چھوڑے رکھیں گے اور آپ صلی اللہ علیہ وسلم مکہ کے پہاڑوں میں در بدر اور ڈرتے ڈرتے پھرتے رہیں گے؟ اس مشورے کے بعد حج کے موسم میں ہم میں سے ستر آدمی آپ صلی اللہ علیہ وسلم کی طرف روانہ ہو گئے، عقبہ گھاٹی میں جمع ہونے کا آپ صلی اللہ علیہ وسلم سے طے پایا۔ ہم ایک دو دو آدمیوں کی صورت میں وہاں جمع ہوتے رہے، یہاں تک کہ سارے اکٹھے ہو گئے ہم نے کہا: اے اللہ کے رسول! کیا ہم آپ کی بیعت کریں؟ آپ صلی اللہ علیہ وسلم نے فرمایا: ”تم اس بات پر میری بیعت کرو کہ چستی و سستی میں میری بات سنو گے اور مانو گے، تنگدستی او خوشحالی میں خرچہ کرو گے، نیکی کا حکم کرو گے اور برائی سے منع کرو گے، تم اللہ کے حق میں بات کرو گے اور اس کے بارے میں ملامت والے کی ملامت سے نہیں ڈرو گے، جب میں تمہارے پاس آ جاؤں تو میری مدد کرو گے اور جن (مکروہات سے) اپنے آپ کو، اپنی بیویوں کو اور اپنی اولاد کو بچاتے ہو، مجھے بھی بچاؤ گے، (اگر تم نے ایسے کیا تو) تمہیں جنت ملے گی۔“ ہم یہ سن کر آپ کی بیعت کرنے کے لیے کھڑے ہو گئے، لیکن سعد بن زرارہ، جو سب سے چھوٹا تھا، نے آپ صلی اللہ علیہ وسلم کا ہاتھ پکڑ لیا اور کہا: یثرب والو! ذرا ٹھہرو، ہم آپ صلی اللہ علیہ وسلم کو رسول اللہ ہی سمجھ کر سفر کر کے آئیں ہیں، (لیکن یاد رکھو کہ) آپ کو مکہ سے نکالنے کا نتیجہ یہ نکلے گا کہ پورا عرب ہم سے جدا ہو جائے گا، ہمارے سردار قتل ہوں گے اور تم تلواروں کا لقمہ بنو گے۔ اگر تم (ان آزمائشوں پر) صبر کرتے ہو تو ٹھیک ہے اور اگر بزدلی کی بنا پر ڈرنا ہے تو ابھی وضاحت کر دو، تاکہ تم اللہ کے ہاں اپنا عذر پیش کر سکو۔ ہم نے کہا: سعد! اب آگے سے ہٹ جاؤ، اللہ کی قسم! ہم اس بیعت کو چھوڑیں گے نہ توڑیں گے۔ ہم کھڑے ہوئے، آپ کی بیعت کی، آپ نے ہم سے بیعت لی اور ہم پر کچھ شرطیں عائد کیں اور اس کے بدلے ہم کو جنت عطا کی۔
हज़रत जाबिर रज़ि अल्लाहु अन्ह कहते हैं कि रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम मक्का में दस वर्ष तक ठहरे रहे, उकाज़, मजनह और हज्ज के मौसम में मिना जाकर लोगों को कहते ! “कौन है जो मुझे शरण दे, कौन है जो मेरी सहायता करे ताकि मैं लोगों तक अपने रब्ब का संदेश पहुंचा सकूं और उसे जन्नत मिल सके ?” जब यमन या मुज़िर का कोई नागरिक मक्का में आता तो आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की क़ौम उस से मिलती और कहती कि क़ुरैश के फ़ुलां आदमी (यानि मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ٰ) से बचकर रहना, कहीं वह तुझे भटका न दे, आप उन के घरों में चल रहे होते थे, वह आप की ओर इशारे करके आप का पीछा करते थे यहाँ तक कि अल्लाह तआला ने हमें यसरब (मदीना) से आप की ओर भेजा हम ने आप को जगह दी और आप को सच्च माना, हमारा आदमी आप के पास पहुँचता, आप पर ईमान लाता, आप उसे क़ुरआन मजीद पढ़ाते, फिर वह अपने घर लोट आता और लोग उस के माध्यम से इस्लाम में आजाते, यहाँ तक कि अन्सारियों के हर मोहल्ले में मुसलमानों की एक उचित संख्या बन गई। एक दिन इन सब (अन्सारियों) ने मश्वरा किया और कहा कि हम कब तक रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को छोड़े रखेंगे और आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम मक्का के पहाड़ों में दर बदर और डरते डरते फिरते रहेंगे ? इस सलाह के बाद हज्ज के मौसम में हम में से सत्तर आदमी आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की ओर रवाना होगए, उक़बह घाटी में जमा होने का आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से तय पाया। हम एक दो दो आदमियों की रूप में वहां जमा होते रहे यहाँ तक कि सारे जमा होगए हम ने कहा ! ऐ अल्लाह के रसूल, क्या हम आप की बैअत करें ? आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया ! “तुम इस बात पर मेरी बैअत करो कि चुस्ती और सुस्ती में मेरी बात सुनोगे और मानोगे, तंगदस्ती ओ ख़ुशहाली में ख़र्चा करोगे, नेकी का हुक्म करोगे और बुराई से मना करोगे, तुम अल्लाह के लिये बात करोगे और उस के बारे में मलामत वाले की मलामत से नहीं डरोगे, जब मैं तुम्हारे पास आजाऊँ तो मेरी सहायता करोगे और जिन से अपने आप को अपनी पत्नियों को और अपनी औलाद को बचाते हो मुझे भी बचावगे (यदि तुम ने ऐसे किया तो) तुम्हें जन्नत मिलेगी।” हम यह सुन कर आप की बैअत करने के लिये खड़े होगए लेकिन सअद बिन ज़रारह जो सब से छोटा था उस ने आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का हाथ पकड़ लिया और कहा ! यसरब वालो ज़रा ठहरो, हम आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को रसूल अल्लाह ही समझ कर और यात्रा करके आए हैं (लेकिन याद रखो कि) आप को मक्का से निकालने का नतीजा यह निकले गा कि पूरा अरब हम से अलग हो जाएगा, हमारे सरदार क़त्ल होंगे और तुम तलवारों का निवाला बनोगे यदि तुम (इन परीक्षाओं पर) सब्र करते हो तो ठीक है यदि कायरता की बिना पर डरना है तो अभी साफ़ करदो, ताकि तुम अल्लाह के हाँ अपना कारण बता सको। हम ने कहा, सअद अब आगे से हट जाओ, अल्लाह की क़सम हम इस बैअत को न छोड़ेंगे न तोड़ेंगे। हम खड़े हुए, आप की बैअत की, आप ने हम से बैअत ली और हम पर कुछ शर्तें लागु कीं और उस के बदले हम को जन्नत दलाई।
سلسله احاديث صحيحه ترقیم البانی: 63
قال الشيخ الألباني: - " تبايعوني على السمع والطاعة في النشاط والكسل والنفقة في العسر واليسر وعلى الأمر بالمعروف والنهي عن المنكر وأن تقولوا في الله لا تخافون في الله لومة لائم وعلى أن تنصروني فتمنعوني إذا قدمت عليكم مما تمنعون منه أنفسكم وأزواجكم وأبناءكم ولكم الجنة ". _____________________ رواه أحمد (3 / 322، 323 - 339) من طرق عن عبد الله بن عثمان بن خثيم عن أبي الزبير محمد بن مسلم أنه حدثه عن جابر قال: " مكث رسول الله صلى الله عليه وسلم بمكة عشر سنين، يتبع الناس في منازلهم بعكاظ ومجنة، وفي المواسم بمنى يقول: من يؤويني؟ من ينصرني حتى أبلغ رسالة ربي وله الجنة؟ حتى إن الرجل ليخرج من اليمن أو من مضر - كذا قال - فيأتيه قومه فيقولون: احذر غلام قريش لا يفتنك، ويمشي بين رحالهم وهم يشيرون إليه بالأصابع، حتى بعثنا الله إليه من يثرب فآويناه وصدقناه، فيخرج الرجل منا فيؤمن به، ويقرئه القرآن، فينقلب إلى أهله فيسلمون بإسلامه، حتى لم يبق دار من دور الأنصار إلا وفيها رهط من المسلمين يظهرون الإسلام، ثم ائتمروا جميعا فقلنا: حتى متى نترك رسول الله صلى الله عليه وسلم يطرد في جبال مكة ويخاف؟ فرحل إليه منا سبعون رجلا حتى قدموا عليه في الموسم، فواعدناه شعب العقبة فاجتمعنا عليه من رجل ورجلين حتى توافينا، فقلنا: يا رسول الله نبايعك؟ قال: (فذكر الحديث) ، قال: فقمنا إليه فبايعناه، وأخذ بيده ابن زرارة وهو من أصغرهم - فقال: رويدا يا أهل يثرب، فإنا لم نضرب أكباد الإبل إلا ونحن نعلم أنه رسول الله صلى الله عليه وسلم وأن إخراجه اليوم مفارقة العرب كافة، وقتل خياركم، وأن تعضكم السيوف، فإما أنتم قوم تصبرون على ذلك وأجركم __________جزء : 1 /صفحہ : 133__________ على الله، وإما أنتم قوم تخافون من أنفسكم جبينة فبينوا ذلك، فهو عذر لكم عند الله. قالوا: أمط عنا يا سعد! فو الله لا ندع هذه البيعة أبدا ولا نسلبها أبدا. قال: فقمنا إليه فبايعناه، فأخذ علينا وشرط: ويعطينا على ذلك الجنة ". قلت: وهذا إسناد صحيح على شرط مسلم، وقد صرح أبو الزبير بالتحديث في بعض الطرق عنه، وقال الحافظ ابن كثير في تاريخه " البداية والنهاية " (3 / 159 - 160) : " رواه أحمد والبيهقي، وهذا إسناد جيد على شرط مسلم، ولم يخرجوه ". ثم رأيته في " المستدرك " (2 / 624 - 625) من الوجه المذكور، وقال: " صحيح الإسناد، جامع لبيعة العقبة ". ووافقه الذهبي. ثم روى قطعة يسيرة وأقره الذهبي. من آخره من طريق أخرى عن جابر به. وقال: " صحيح على شرط مسلم ". ¤