हज़रत जाबिर बिन अब्दुल्लाह रज़ि अल्लाहु अन्हुमा से रिवायत है कि रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने हज्ज किया तो हम आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के साथ निकले यहाँ तक कि हम ज़ुल-हलीफ़ा पहुंचे तो असमा बिन्त उमेस रज़ियल्लाहु अन्हा ने बच्चा जना। आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया ! “ग़ुस्ल कर और किसी कपड़े से लुंगी बाँध ले और एहराम बाँध ले।” रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने मस्जिद में नमाज़ पढ़ी और क़सवाअ (आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की ऊँटनी का नाम) पर सवार हो गए यहाँ तक कि जब आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम बेदाअ के बराबर आए तो आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने तौहीदी तलबिया पुकारा « لبيك اللهم لبيك لبيك لا شريك لك لبيك إن الحمد والنعمة لك والملك لا شريك لك » “मौजूद हूँ, ऐ मेरे अल्लाह ! मैं मौजूद हूँ, तेरा कोई साझी नहीं, मैं मौजूद हूँ, बेशक सब ताअरीफ़ें और इनाम तेरे हैं। बादशाहत भी तेरी है, तेरा कोई साझी नहीं ।” यहाँ तक कि हम बेतुल्लाह में प्रवेश कर गए। हजर असवद को आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने चुम्बन दिया, तीन बार रमल किया और चार बार आम तोर पर चले। फिर आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम मुक़ाम इब्राहीम पर आए और नमाज़ पढ़ी फिर हजर अस्वद की तरफ़ वापस आए और उस को चुम्बन दिया। फिर मस्जिद अल-हराम के दरवाज़े से सफ़ा की ओर निकले जब सफ़ा के पास पहुंचे तो ये आयत पढ़ी। “बेशक सफ़ा और मरवाह अल्लाह तआला की निशानियों में से हैं।” (फिर फ़रमाया) “मैं शुरू करता हूँ (सई को) उस मुक़ाम से जहां से अल्लाह ने शुरू किया है।” फिर सफ़ा पर चढ़े। यहाँ तक कि आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने बेतुल्लाह को देखा। फिर अपने आप को क़िबले की ओर करके अल्लाह एक होना और बढ़ाई बयान की और कहा “अल्लाह के सिवा कोई ईश्वर नहीं वह अकेला है कोई उस का साझी नहीं। बादशाही और सब अच्छाइयां उसी की हैं और वह हर चीज़ पर क़ाबू रखता है अल्लाह के सिवा कोई ईश्वर नहीं। उस ने अपना वादा पूरा कर दिया और अपने बंदे की सहायता की और काफ़िरों के दल को अकेले उसी ने मात दी।” फिर इस के बीच में तीन बार दुआ की। फिर सफ़ा से उतरे और मरवाह की ओर गए। यहाँ तक कि जब आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के दोनों पांव घाटी की गहराई में पड़े तो दौड़े यहाँ तक कि आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम गहराई से उपर चढ़े और मरवाह की ओर चले। मरवाह पर वही कुछ किया जो सफ़ा पर किया था। फिर जाबिर रज़िअल्लाहु अन्ह ने सारी हदीस बयान की जिस में ये है कि जब 8 ज़ुलहिज्जह का दिन हुआ तो लोग मीना की ओर गए और नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम सवार थे फिर वहां ज़ोहर, अस्र, मग़रिब, इशा और सुबह की नमाज़ पढ़ी। फिर थोड़ी देर ठहरे यहाँ तक कि सूरज निकल आया तो वहां से रवाना हुए और मुज़्दलिफ़ा से गुज़रते हुए अराफ़ात में पहुंचे तो तम्बू में उतरे जो आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के लिये नमिरह में लगाया गया था। फिर जब सूरज ढलने लगा तो आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने क़सवाअ पर पालान रखने का हुक्म दिया। आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम सवार हो कर घाटी के बीच में आए और लोगों को ख़ुत्बा दिया फिर अज़ान दिलवाई फिर इक़ामत कहलवाई तो नमाज़ ज़ोहर पढ़ी फिर इक़ामत कहलवाई तो अस्र की नमाज़ पढ़ी और इन दोनों के बीच में कोई नमाज़ न पढ़ी। फिर सवार हो कर ठहरने की जगह पर पहुंचे तो अपनी ऊँटनी क़सवाअ का पेट पत्थरों की ओर कर दिया और रास्ता चलने वालों को अपने सामने कर लिया और अपनी दिशा को क़िबले की ओर कर लिया। फिर आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम उस समय तक ठहरे रहे कि सूरज डूबने लगा और थोड़ी सी पीली रौशनी ख़त्म हो गई यहां तक कि सूरज पूरी तरह डूब गया फिर आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम इसी हालत में वापस हुए। आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने क़सवाअ की लगाम इतनी तंग कर रखी थी कि उस का सर आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के पालान के अगले उभरे हुए भाग को पहुँचता था और आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम अपने दाहिने हाथ से इशारा करते हुए कहते थे “ऐ लोगो ! आराम से और तसल्ली के साथ रहो” और जब भी आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम किसी टीले पर आते तो लगाम थोड़ी सी ढीली कर देते कि वह उपर चढ़ जाती यहाँ तक कि आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम मुज़्दलिफ़ा आ गए और वहां एक अज़ान और दो इक़ामत के साथ मग़रिब और इशा की नमाज़ पढ़ी और दोनों के बीच में कोई नफ़िली नमाज़ नहीं पढ़ी। फिर लेट गए। यहाँ तक कि सुबह हो गई। जब फ़जर का समय हुआ तो आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने अज़ान और इक़ामत से फ़जर की नमाज़ पढ़ी। फिर सवार हो कर मशअर हराम पर आए। बस आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने अपनी दिशा को क़िबले की ओर किया और दुआ की और तकबीर और ला-इलाहा-इल्लल्लाह कहते रहे । आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम वहां अच्छी तरह सफ़ेदी दिख जाने तक ठहरे रहे फिर सूरज निकलने से पहले वापस हो कर घाटी मेहसर की गहराई में आ गए तो सवारी को कुछ तेज़ कर दिया। फिर बीच रास्ते पर चले जो बड़े शैतान पर पहुँचता है फिर आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम उस शैतान पर आए जो पेड़ के पास है तो उसे सात कंकरियां घाटी की गहराई से मारीं, हर कंकरी के साथ अल्लाहु अकबर « الله اكبر » कहते थे, इन में से हर कंकरी लोबिया के दाने के बराबर थी। फिर आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम क़ुर्बानगाह की तरफ़ गए और वहां क़ुरबानी की फिर रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम सवार हुए और बेतुल्लाह की तरफ़ रवाना हुए। फिर मक्का में ज़ोहर की नमाज़ पढ़ी। इसे मुस्लिम ने विस्तार से बयान किया है।
Jabir bin 'Abdullah (RAA) narrated, ‘The Messenger of Allah (ﷺ) performed Hajj (on the 10th year of Hijrah), and we set out with him (to perform Hajj). When we reached Dhul-Hulaifah, Asma` bint 'Umais gave birth to Muhammad Ibn Abi Bakr. She sent a message to the Prophet (ﷺ) (asking him what she should do). He said, "Take a bath, bandage your private parts and make the intention for Ahram." The Prophet (ﷺ) then prayed in the mosque and then mounted al-Qaswa (his she-camel) and it stood erect with him on its back at al-Baida’ (the place where he started his Ihram). He then started pronouncing the Talbiyuh, saying:
"Labbaika Allahumma labbaik labbaika la sharika laka labbaik, innal hamda wan-ni’mata laka wal mulk, la sharika lak (O Allah! I hasten to You. You have no partner. I hasten to You. All praise and grace is Yours and all Sovereignty too; You have no partner). When we came with him to the House (of Allah), he placed his hands on the Black Stone (Hajar al Aswad) and kis+sed it. He then started to make seven circuits (round the Ka’bah), doing ramal (trotting) in three of them and walking (at his normal pace) four other circuits. Then going to the place of Ibrahim (Maqam Ibrahim), there he prayed two rak'at. He then returned to the Black Stone (Hajar al Aswad) placed his hands on it and kissed it. Then he went out of the gate to Safa, and as he approached it, he recited: “Verily as-Safa and Marwah are among the signs appointed by Allah,"(2:158), adding, “I begin with what Allah began." He first mounted as-Safa until he saw the House, and facing the Qiblah he declared the Oneness of Allah and glorified Him and said: ‘La ilaha illa-llah wahdahu la sharika lahu, lahul mulk wa lahul hamd, wa huwa 'ala kulli shai’in qadeer, la ilaha illa-llahu wahdahu anjaza wa'dahu, wa nas ara 'abdahu, wa hazamal ahzaba wahdah’ (There is no God but Allah, He is One, and has no partner. His is the dominion, and His is the praise and He has Power over all things. There is no God but Allah alone, Who fulfilled His promise, helped His servant and defeated the confederates alone.") He said these words three times making supplications in between. He then descended and walked towards Marwah, and when his feet touched the bottom of the valley, he ran; and when he began to ascend, he walked (at his normal pace) until he reached Marwah. There he did as he had done at Safa…. When it was the day of Tarwiyah (8th of Dhul-Hijjah) they went to Mina and put on the Ihram for Hajj and the Messenger of Allah (ﷺ) rode his mount, and there he led the Dhur (noon), ‘Asr (afternoon), Maghrib (sunset), ‘Isha and Fajr (dawn) prayers. He then waited a little until the sun had risen, and commanded that a tent be pitched at Namirah (close to Arafat). The Messenger of Allah (ﷺ), continued on until he came to Arafah and he found that the tent had been pitched for him at Namirah. There he got down until the sun had passed its meridian; he commanded that al-Qaswa’ be brought and saddled for him, then he came to the bottom of the valley, and addressed the people with the well-known sermon Khutbat al-Wada (the Farewell Sermon). Then the Adhan was pronounced and later on the Iqamah and the Prophet led the Dhuhr (noon) prayer. Then another Iqamah was pronounced and the Prophet led the Asr (afternoon) prayer and he observed no other prayer in between the two. The Messenger of Allah then mounted his camel and came to the place where he was to stay. He made his she-camel, al-Qaswa turn towards the rocky side, with the pedestrian path lying in front of him. He faced the Qiblah, and stood there until the sun set, and the yellow light diminished somewhat, and the disc of the sun totally disappeared. He pulled the nose string of al-Qaswa’ so forcefully that its head touched the saddle (in order to keep her under perfect control), and pointing with his right hand, advised the people to be moderate (in speed) saying: “O people! Calmness! Calmness!" Whenever he passed over an elevated tract of land, he slightly loosened the nose-string of his camel until she climbed up. This is how he reached al-Muzdalifah. There he led the Maghrib (sunset) and Isha prayers with one Adhan, and two lqamas, and did not pray any optional prayers in between them. The Messenger of Allah then lay down until dawn and then offered the Fajr (dawn) prayer with an Adhan and an Iqamah when the morning light was clear. He again mounted al-Qaswa’, and when he came to Al-Mash‘ar Al-Haram (The Sanctuary Landmark, which is a small mountain at al-Muzdalifah) he faced the Qiblah, and supplicated to Allah, Glorified Him, and pronounced His Uniqueness and Oneness, and kept standing until the daylight was very clear. Then he set off quickly before the sun rose, until he came to the bottom of the valley of Muhassir where he urged her (al·Qaswa’) a little. He followed the middle road, which comes out at the greatest Jamarah (one of the three stoning sites called Jamrat-ul ‘Aqabah), he came to Jamarah which is near the tree. At this he threw seven small pebbles, saying, Allahu Akbar` while throwing each of them in a manner in which small pebbles are thrown (holding them with his fingers) and this he did while at the bottom of the valley. He then went to the Place of sacrifice, and sacrificed sixty-three (camels) with his own hand (he brought 100 camels with him and he asked ’Ali to sacrifice the rest). The Messenger of Allah again rode and came to the House (of Allah), where he performed Tawaf al-Ifada and offered the Dhuhr prayer at Makkah….’ Muslim transmitted this hadith through a very long narration describing the full details of the Hajj of the Prophet
USC-MSA web (English) Reference: 0
● سنن النسائى الصغرى | 215 | جابر بن عبد الله | مرها أن تغتسل وتهل |
● سنن النسائى الصغرى | 292 | جابر بن عبد الله | اغتسلي واستثفري ثم أهلي |
● سنن النسائى الصغرى | 392 | جابر بن عبد الله | مرها أن تغتسل وتهل |
● سنن النسائى الصغرى | 429 | جابر بن عبد الله | اغتسلي ثم استثفري ثم أهلي |
● صحيح البخاري | 1785 | جابر بن عبد الله | أهل وأصحابه بالحج وليس مع أحد منهم هدي غير النبي وطلحة وكان علي قدم من اليمن ومعه الهدي أهللت بما أهل به رسول الله وأن النبي أذن لأصحابه أن يجعلوها عمرة يطوفوا بالبيت ثم يقصروا ويحلوا إلا من م |
● صحيح مسلم | 2950 | جابر بن عبد الله | مكث تسع سنين لم يحج ثم أذن في الناس في العاشرة أن رسول الله حاج فقدم المدينة بشر كثير كلهم يلتمس أن يأتم برسول الله ويعمل مثل عمله خرجنا معه حتى أتينا ذا الحليفة فولدت أسماء بنت عميس محمد بن أبي بكر |
● صحيح مسلم | 2909 | جابر بن عبد الله | تغتسل وتهل |
● سنن أبي داود | 1905 | جابر بن عبد الله | مكث تسع سنين لم يحج ثم أذن في الناس في العاشرة أن رسول الله حاج ولدت أسماء بنت عميس محمد بن أبي بكر فأرسلت إلى رسول الله كيف أصنع اغتسلي واستذفري بثوب وأحرمي صلى رسول الله في المسجد ثم ركب القصواء حتى إذا استوت به ناقته على البيداء أهل رسول الله بالتوحيد |
● سنن ابن ماجه | 3074 | جابر بن عبد الله | مكث تسع سنين لم يحج فأذن في الناس في العاشرة أن رسول الله حاج خرج وخرجنا معه فأتينا ذا الحليفة فولدت أسماء بنت عميس محمد بن أبي بكر |
● سنن ابن ماجه | 2913 | جابر بن عبد الله | أمرها أن تغتسل وتستثفر بثوب وتهل |
● سنن النسائى الصغرى | 2741 | جابر بن عبد الله | مكث بالمدينة تسع حجج ثم أذن في الناس أن رسول الله حاج في هذا العام فنزل المدينة بشر كثير كلهم يلتمس أن يأتم برسول الله ويفعل ما يفعل فخرج رسول الله لخمس بقين من ذي القعدة وخرجنا معه |
● سنن النسائى الصغرى | 2762 | جابر بن عبد الله | اغتسلي واستثفري بثوب ثم أهلي |
● سنن النسائى الصغرى | 2763 | جابر بن عبد الله | تغتسل وتستثفر بثوبها وتهل |
● سنن النسائى الصغرى | 2764 | جابر بن عبد الله | هذا أمر كتبه الله على بنات آدم اغتسلي ثم أهلي بالحج ففعلت وقفت المواقف حتى إذا طهرت طافت بالكعبة وبالصفا والمروة قد حللت من حجتك وعمرتك جميعا فقالت يا رسول الله إني أجد في نفسي أني لم أطف بالبيت حتى حججت قال فاذهب بها يا عبد الرحمن فأعمرها |
● بلوغ المرام | 44 | جابر بن عبد الله | ابدءوا بما بدا الله به . اخرجه النسائي هكذا بلفظ الامر، وهو عند مسلم بلفظ الخبر |
● بلوغ المرام | 607 | جابر بن عبد الله | حج فخرجنا معه حتى إذا اتينا ذا الحليفة فولدت اسماء بنت عميس |
● المعجم الصغير للطبراني | 865 | جابر بن عبد الله | إني تارك فيكم الثقلين أحدهما أكبر من الآخر : كتاب الله عز وجل حبل ممدود من السماء إلى الأرض ، وعترتي أهل بيتي ، وإنهما لن يفترقا حتى يردا على الحوض |
● المعجم الصغير للطبراني | 867 | جابر بن عبد الله | إني تارك فيكم الثقلين ما إن تمسكتم به لن تضلوا كتاب الله وعترتي ، وإنهما لن يفترقا حتى يردا على الحوض |
● مسندالحميدي | 1304 | جابر بن عبد الله | نبدأ بما بدأ الله به |
● مسندالحميدي | 1305 | جابر بن عبد الله | لما تصوبت قدما رسول الله صلى الله عليه وسلم في الوادي رمل حتى جاز الوادي |